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051 Udgaatev Shakune - Santasa

051 Udgaatev Shakune

मूल प्रार्थना

उ॒द्गा॒तेव॑ शकुने॒ साम॑ गायसि ब्रह्मपु॒त्रइ॑व॒ सव॑नेषु शंससि।

वृषे॑व वा॒जी शिशु॑मतीर॒पीत्या॑ स॒र्वतो॑ नः॒ शकुने भ॒द्रमा व॑द वि॒श्वतो॑ नः॒ शकुने॒ पुण्य॒मा व॑द॥५२॥ऋ॰ २।८।१२।२

आ॒वदँ॒स्त्वं श॑कुने भ॒द्रमा व॑द तू॒ष्णीमासी॑नः सुम॒तिं चि॑किद्धि नः।

यदु॒त्पत॒न् वद॑सि कर्क॒रिर्य॑था बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥५३॥ऋ॰ २।८।१२।३

व्याख्यानहे “शकुने सर्वशक्तिमन्नीश्वर! आप साम को सदा गाते हो, वैसे ही हमारे हृदय में सब विद्या का प्रकाशित गान करो। जैसे यज्ञ में महापण्डित सामगान करता है, वैसे आप भी हम लोगों के बीच में सामादि विद्या का गान (प्रकाश) कीजिए। “ब्रह्मपुत्र इव आप कृपा से सवन (पदार्थ-विद्याओं) की “शंससि प्रशंसा करते हो, वैसे हमको भी यथावत् प्रशंसित करो। जैसे “ब्रह्मपुत्र इव वेदों का वेत्ता विज्ञान से सब पदार्थों की प्रशंसा करता है, वैसे आप भी हमपर कृपा कीजिए। आप “वृषेव वाजी सर्वशक्ति का सेचन करने और अन्नादि पदार्थों के दाता तथा महाबलवान् और वेगवान् होने से वाजी हो। जैसाकि वृषभ की नार्इं आप उत्तम गुण और उत्तम पदार्थों की वृष्टि करनेवाले हो, वैसे हमपर उनकी वृष्टि करो। “शिशुमतीः हम लोग आपकी कृपा से उत्तम-उत्तम शिशु (सन्तानादि) को “अपीत्य प्राप्त होके आपको ही भजें। “आ सर्वतो नः शकुने हे शकुने! सर्वसामर्थ्यवान् ईश्वर! सब ठिकानों से हमारे लिए “भद्रम् कल्याण को “आ वद अच्छे प्रकार कहो, अर्थात् कल्याण की ही आज्ञा और कथन करो, जिससे अकल्याण की बात भी कभी हम न सुनें। “विश्वतो नः शकुने हे सबको सुख देनेवाले ईश्वर! सब जगत् के लिए “पुण्यम् धर्मात्मक कर्म करने का “आ वद उपदेश कर, जिससे कोई मनुष्य अधर्म करने की इच्छा भी न करे और सब ठिकानों में सत्यधर्म की प्रवृत्ति हो॥आवदंस्त्वं शकुने हे शकुने! जगदीश्वर! आप सब ”भद्रम् कल्याण का भी कल्याण, अर्थात् व्यावहारिक सुख के भी ऊपर मोक्षसुख का निरन्तर उपदेश सब जीवों को कीजिए। “तूष्णीमासीनः हे अन्तर्यामिन्! हमारे हृदय में सदा स्थिर हो मौनरूप से ही “सुमतिम् सर्वोत्तम ज्ञान देओ। “चिकिद्धि नः कृपा से हमको अपने रहने के लिए घर ही बनाओ और आपकी परमविद्या को हम प्राप्त हों। “यदुत्पतन् उत्तम व्यवहार में पहुँचाते हुए आपका यथा=जिस प्रकार से “कर्करिर्वदसि कर्त्तव्य कर्म, धर्म को ही अत्यन्त पुरुषार्थ से करो, अकर्त्तव्य दुष्ट कर्म मत करो, ऐसा उपदेश है कि पुरुषार्थ, अर्थात् यथायोग्य उद्यम को कभी कोई मत छोड़ो। जैसे “बृहद्वदेम विदथे विज्ञानादि यज्ञ वा धर्मयुक्त युद्धों में “सुवीराः अत्यन्त शूरवीर होके “बृहत् (सबसे बड़े) आप जो परब्रह्म उन “वदेम आपकी स्तुति, आपका उपदेश, आपकी प्रार्थना और उपासना तथा आपका यह बड़ा, अखण्ड साम्राज्य और सब मनुष्यों का हित सर्वदा कहें, सुनें और आपके अनुग्रह से परमानन्द को भोगें॥५२॥५३॥

ओम् महाराजाधिराजाय परमात्मने नमो नमः॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां महाविदुषां श्रीयुतविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचित आर्याभिविनये प्रथमः प्रकाशः पूर्तिमागमत्। समाप्तोऽयं प्रथमः प्रकाशः॥

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