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04 कृष्ण जन्माष्टमी भद्रपद कृष्ण अष्टमी - Santasa
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04 कृष्ण जन्माष्टमी भद्रपद कृष्ण अष्टमी

अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः :- ओम् आवसो सदने सीद।
ऋत्विगुक्तिः :- ओं सीदामि।
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
ऋत्विगुक्तिः :- वृतोऽस्मि।

अथाचमन-मन्त्राः
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।। इससे एक
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।। इससे दूसरा
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. १०/अनु. ३२, ३५) इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।

अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु। इस मन्त्र से दोनों बाहु
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना। (पारस्कर गृ.का.२/क.३/सू.२५)

अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।। (यजु अ.३०/मं.३)
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।
हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।
दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।
मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।

हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।
एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।
धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.२५/१३)
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।
विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।
जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (ऋ. १०/१२१/३)
जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।
जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।
रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।
जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।
किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।
परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।
सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।
जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।
जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।
पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतमानशाना- स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।
मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।
सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।
करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।

अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।। (यजु.अ.४०/मं.१६)
हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।
स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।
धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।
पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।
अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।

अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्।। १।। (ऋ.१/१/१)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। २।। (ऋ.१/१/९)
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।३।। (ऋ.५/५१/११)
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः।। ४।। (ऋ.५/५१/१२)
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः।। ५।। (ऋ.५/५१/१३)
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि।। ६।। (ऋ.५/५१/१४)
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।। ७।।
(ऋ.५/५१/१५)
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ८।। (ऋ.७/३५/१५)
येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौ- रदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये।। ९।। (ऋ.१०/६३/३)
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये।। १०।।
(ऋ.१०/६३/४)
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये।। ११।। (ऋ.१०/६३/५)
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।। १२।।
(ऋ.१०/६३/६)
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये।। १३।। (ऋ.१०/६३/७)
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये।।
।। १४।। (ऋ.१०/६३/८)
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये।। १५।। (ऋ.१०/६३/९)
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। १६।। (ऋ.१०/६३/१०)
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये।। १७।। (ऋ.१०/६३/११)
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रा- मघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये।। १८।। (ऋ.१०/६३/१२)
अरिष्टः स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये।। १९।। (ऋ.१०/६३/१३)
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये।। २०।। (ऋ.१०/६३/१४)
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन।। २१।। (ऋ.१०/६३/१५)
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा।। २२।। (ऋ.१०/६३/१६)
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघश सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।। २३।। (यजु.१/१)
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो- ऽ अपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।। २४।।
(यजु.२५/१४)
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना द्भञ रातिरभि नो निवर्त्तताम्।
देवाना द्भञ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।
(यजु.२५/१५)
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।। २६।। (यजु.२५/१८)
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। २७।। (यजु.२५/१९)
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा द्भञ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। २८।। (यजु.२५/२१)
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि।। २९।। (सा.पू.१/१/१)
त्वमग्ने यज्ञाना द्भञ होता विश्वेषा द्भञ हितः।
देवेभिर्मानुषे जने।। ३०।। (सा.पू.१/१/२)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वोऽअद्य दधातु मे।। ३१।। (अथर्व.१/१/१)

अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ।। १।। (ऋ.७/३५/१)
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु।। २।। (ऋ.७/३५/२)
शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु।। ३।। (ऋ.७/३५/३)
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः।। ४।। (ऋ.७/३५/४)
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः।। ५।। (ऋ.७/३५/५)
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा- ग्नाभिरिह शृणोतु।। ६।। (ऋ.७/३५/६)
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः शम्वस्तु
वेदिः।। ७।। (ऋ.७/३५/७)
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः।। ८।। (ऋ.७/३५/८)
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः।। ९।।
(ऋ.७/३५/९)
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः।। १०।। (ऋ.७/३५/१०)
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमुरातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः।। ११।।
(ऋ.७/३५/११)
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं नः ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु।। १२।।
(ऋ.७/३५/१२)
शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपाः।। १३।। (ऋ.७/३५/१३)
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।। १४।। (यजु.३६/८)
शन्नो वातः पवता द्भञ शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।। १५।। (यजु.३६/१०)
अहानि शम्भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः।। १६।। (यजु.३६/११)
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। १७।। (यजु.३६/१२)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। १८।। (यजु.३६/१७)
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। १९।। (यजु.३६/२४)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरग्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २०।। (यजु.३४/१)
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२१।। (यजु.३४/२)
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २२।। (यजु.३४/३)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२३।। (यजु.३४/४)
यस्मिन्नृचः साम यजू द्भञ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२४।। (यजु.३४/५)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२५।।
(यजु.३४/६)
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
श द्भञ राजन्नोषधीभ्यः।। २६।। (साम.उ.१/१/३)
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरा- दभयं नो अस्तु।।२७।। (अथर्व.१९/१५/५)
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।।२८।। (अथर्व.१९/१५/६)

अग्न्याधानम्
ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।। (यजृ.अ.३/मं.५)
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
समिदाधानम्
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु. ३/१)
इससे और..
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।। इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु. ३/३)
इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।

प९चघृताहुतिमन्त्रः
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। (आश्व.गृ.सू. १/१०/१२)

जलसि९चनमन्त्राः
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।। इससे पूर्व में
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।। इससे पश्चिम में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।। इससे उत्तर दिशा में
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.३०/१)
इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।

आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।। (यजु.२२/२७)
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।

प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९)
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।। (यजु. ३/१०)
अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।

प्रातः सांयकालीनमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।। (गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)

सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९ के अनुसार)
इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।। (यजु.३/९, १०)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
(तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)

पूर्णाहुति-प्रकरणम्
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।।
(गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
इन दो मन्त्रों से वेदी के मध्य में आहुति देनी, उसके पश्चात् उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की निम्न चार आहुतियाँ देवे।
व्याहृत्याहुतिमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् होमाहुति भात की अथवा घृत की देवें।
यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते – इदन्न मम।। १।। (आश्व.१/१०/२२)
ओं प्रजापतये स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। २।।
(यजु.१८/२२) इस प्राजापत्याहुति को मन में बोलकर देनी चाहिए।
आज्याहुतिमन्त्राः (पवमानाहुतयः)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ३।। (ऋ.९/६६/१९)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.९/६६/२०)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ५।।
(ऋ.९/६६/२१)
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ६।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
इनसे घृत की चार आहुतियाँ करके ‘अष्टाज्याहुति’ के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मंगल कार्यों में आठ आहुति देवें।
त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽवयासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ७।। (ऋ. ४/१/४)
स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ८।।
(ऋ.४/१/५)
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। ९।। (ऋ.१/२५/१९)
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। १०।। (ऋ.१/२४/११)
ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।
तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः – इदन्न मम।। ११।।
(का.श्रौत.२५/१/११)
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भञ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे – इदन्न मम ।। १२।। (का.श्रौत.२५/१/११)
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्यायाऽदितये च – इदन्न मम।। १३।।
(ऋ.१/२४/१५)
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। १४।। (यजु.५/३)

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी

(१) ओ३म् तेजोऽसि तेजो मयि धेहि स्वाहा।

            (२) ओ३म् वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि स्वाहा।

            (३) ओ३म् बलमसि बलं मयि धेहि स्वाहा।

            (४) ओ३म् आजोऽस्योजो मयि धेहि स्वाहा।

            (५) ओ३म् मन्युरसि मन्युं मयि धेहि स्वाहा।

            (६) ओ३म् सहोऽसि सहो मयि धेहि स्वाहा।

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें।

पूर्णाहुति-मन्त्राः
ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा। इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।

(५) अथ भूतयज्ञः (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
निम्नलिखित दस मन्त्रों से घृत-मिश्रित भात की यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़कर पाकशाला में जो कुछ भोजन बना हो उसी की आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा।। १।। ओं सोमाय स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निषोमाभ्यां स्वाहा।। ३।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।। ४।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।। ५।। ओम् कुह्वै स्वाहा।। ६।। ओम् अनुमत्यै स्वाहा।। ७।। ओं प्रजापतये स्वाहा।। ८।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।। ९।। ओें स्विष्टकृते स्वाहा।। १।।
तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से बलिदान करें। एक पत्तल अथवा थाली में यथोक्त दिशाओं में भाग रखना। यदि भाग रखने के समय कोई अतिथि आ जाए तो उसी को देना अथवा अग्नि में डालना चाहिए।
ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। १।। (इससे पूर्व)
ओं सानुगाय यमाय नमः।। २।। (इससे दक्षिण)
ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ३।। (इससे पश्चिम)
ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ४।। (इससे उत्तर)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ५।। (इससे द्वार)
ओं अद्भ्यो नमः।। ६।। (इससे जल)
ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ७।। (इससे मूसल व ऊखल)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ८।। (इससे ईशान)
ओं भद्रकाल्यै नमः।। ९।। (इससे नैऋत्य)
ओं ब्रह्मपतये नमः।। १०।।
ओं वस्तुपतये नमः।। ११।। (इनसे मध्य)
ओं विश्वभ्यो देवेभ्यो नमः।। १२।।
ओं दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १३।।
ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १४।। (इनसे ऊपर)
ओं सर्वात्मभूतये नमः।। १५।। (इससे पृष्ठ)
ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। १६।। (इससे दक्षिण) -मनु. ३/८७-९१
तत्पश्चात् घृतसहित लवणान्न लेके-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निवपेद् भुवि।।
(मनु. ३/९२)
अर्थ :- कुत्ता, पतित, चाण्डाल, पापरोगी, काक और कृमि- इन छः नामों से छः भाग पृथ्वी पर धरे और वे भाग जिस-जिस नाम के हों उस-उस को देवें।

(६) अतिथियज्ञः
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्।। १।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावासीत्सीर्व्रा- त्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति।। २।।
(अथर्व. १५/११/१,२)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था ? हे ब्रह्मन् जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा और उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।

यज्ञ-प्रार्थना
पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।
सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।

शान्ति पाठः
ओं द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.३६/१७)
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

जल में थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में अग्नि पवन में।

ओषधि वनस्पति वन उपवन में, सकल विश्व में जड़ चेतन में।। 1।।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

ब्राह्मण के उपदेश वचन में, क्षत्रिय के द्वारा हो रण में।

वैश्य जनों के होवे धन में, और सेवक के परिचरणन में।। 2।।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

शान्ति राष्ट्र निर्माण सृजन में, नगर ग्राम में और भवन में।

जीव मात्र के तन में मन में, और जगत के हो कण कण में।। 3।।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी

भाद्रपद बदि अष्टमी)

धन्य है दिन आज का, शुभ कृष्ण-भादव अष्टमी।

            आज ही मां देवकी तो, कृष्ण बालक थी जनी ।। १ ।।

            रोहिणी नक्षत्र रजनी मध्य, अति अभिराम में।

            आज ही ब्रजचन्द्र प्रकटे, श्री यशोदा-धाम में ।। २ ।।

            नाश करने को उन्हें, जो दुःखद आठों याम थे।

            आज ही भारत मही में, आ पधारे श्याम थे ।। ३ ।।

            उमड़ आये घनं चहुं दिशि श्यामता थी छा गई।

            मानो प्रकृति देवी स्वयं, स्वागत मनाने आ गई ।। ४ ।।

                                                            श्री अमरनाथ पाण्डे

प्रत्येक देश और जाति में ऐसे समय आया करते हैं जब कि उन में ऐसे पुरुष उत्पन्न होते हैं। जो ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ कदाचार तथा कायरता के भावों से भरपूर होते हैं। वे समय उस देश और जाति के पतन के सूचक होते हैं। यह कब सम्भव था कि आर्य जाति, जिस की उन्नति सभ्यता और विद्वत्ता का सिक्का संसार पर जम चुका था और जिसका उत्कर्ष चरम सीमा को पहुंच चुका था, कराल काल के चक्र में न आती। गत द्वापर युग का अन्त भारत में ऐसा ही समय था। अब आर्य जाति का ज्ञानकाल व्यतीत हो गया था और उसके स्थान में प्राकृतिक वैभव का साम्राज्य वर्तमान था। अब भरत और राम के स्थान कंस और दुर्योधन जैसे राज्यलोलुप कुलकलंकों ने ले लिया था। अब राज्य इन्द्रिय वासनाओं की तृप्ति और ऐश्वर्य प्रदर्शन का साधन मात्र रह गया था। सर्वत्र ऐहिक उन्नति और बाह्य आडम्बर का प्रसार दिखाई देता था। भारत के चारों ओर ईर्ष्यालु अनेक छोटे-बड़े स्वतन्त्र राज्य फैले हुए थे। वे धन धान्य आदि सुखोपभोग की सभी सामग्रियों से समृद्ध थे। और उन के नरेश शस्त्रविद्यापारंगत और वीर होते हुए भी मद्यपान और द्यूतक्रीड़ा आदि दुर्व्यसनों में रत रहते थे। उन में कोई चक्रवर्ती राजा न था। यद्यपि उस समय मगध नरेश जरासन्ध की शक्ति की धाक बैठी हुई थी। उस ने बहुत से राजाओं को अपने यहां बन्दी बना रखा था। सब राजा उसके अत्याचार से डरते रहते थे और उस के बल का लोहा मानते थे। चेदिदेश का राजा शिशुपाल भी उस समय महाशक्तिशाली समझा जाता था। प्राग्ज्योतिष ( आसाम ) का राजा नरकासुर भी बड़ा दुराचारी और बलवान् माना जाता था। उस ने अपने दुराचार के लिए असंख्य सुन्दरी कुमारियां अपने यहां बन्दी बनाकर रक्खी हुई थीं। तथापि कोई सर्वोपरि सम्राट् उस समय विद्यमान न था। उसी समय शूरसेन ( मथुरा ) के राजा कंस की राज्यलोलुपता इस सीमा तक बढ़ चुकी थी कि वह अपने वृद्ध पिता महाराज उग्रसेन को बन्दी बनाकर स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गया था। हस्तिनापुर के विशाल राज्य में सिंहासन के लिए कौरव और पाण्डवों में भयंकर गृह-कलह मच रहा था। उस समय राजाओं, राजघरानों का चरित्र बहुत ही गिर चुका था। सत्यवती और कुन्ती के कानीन पुत्रों की उत्पत्ति, द्रौपदी के स्वयंवर के अवसर पर राजपुत्रों की मुठभेड़, कौरवों का लाक्षागृह, युधिष्ठिर की द्यूतक्रीडा, द्रौपदी का भरी सभा में अपमान और अर्जुन का सुभद्राहरण इस के ज्वलन्त उदाहरण है। जब राजा, राजपुरुष ही चरित्रहीन हो जायें तो प्रजा का चरित्र कैसे उच्च रह सकता है? उन में भी इन्द्रियासक्ति  और दुर्योधनादि के अत्याचारों के प्रति विरक्ति तथा कायरता प्रसार पा चुकी थी। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ के अनुसार जनता भी अपने प्रभुओं का अनुकरण करती थी। उन में विलासिता और अर्थलोलुपता दिनोंदिन बढ़ रही थी। अनेक विद्याविशारद ब्राह्मण अर्थ के दास होकर राजकुल की सेवा स्वीकार करने लगे थे। जैसा कि गुरु द्रोणाचार्य कौरवों के अर्थक्रीत दास बनकर उन के द्रौपदी के प्रति किए हुए महान् अत्याचार पर भी चुप रहे थे और उन की ओर से महाभारत-युद्ध में सेनापति बनकर लड़े थे। वैश्य शूद्र और स्त्रियों को हीन समझा जाने लगा था। जिस का कि श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख पाया जाता है। एकलव्य को केवल शूद्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या नहीं सिखलाई थी। वेद का पठन-पाठन भी शनैः शनैः घट रहा था। भीष्म पितामह जैसे परम ज्ञानी भी वेद में विशेष प्रवेश न रखते थे, इस का उल्लेख शान्ति-पर्व में विद्यमान है। महाभारत युद्ध की कई घटनाएं बता रही हैं कि उस समय धर्म का ह्नास और अधर्म की वृद्धि हो रही थी? ऐसे धर्म-रक्षाकारिणी व्यवस्था के अनुसार धर्मोद्धारक महापुरुषों का जन्म हुआ करता है। जिन के असाधारण कार्यों की देखकर जनता में उन के नित्य शुद्ध, बुद्ध, विभु, मुक्त, अकाय, अजन्मा, परम ब्रह्म के अवतार होने (शरीर धारण करने) का मिथ्याज्ञान संसार में फैल जाता है। यदि अवतार का अर्थ परमेश की विभूतियों से विशिष्ट (क्योंकि उपासक अपने उपास्य देव की विभूतियों और गुणों को उपासना द्वारा सदैव ग्रहण करते रहते हैं।) अनेक जन्म की संस्कार-सम्पन्न आत्माओ के धराधाम पर पुनः अवतीर्ण होने वा जन्मने को लिया जाए तो इस में वैदिक सिद्धान्त की कुछ भी क्षति नहीं है। ऐसे ही जन्म जन्मान्तर के संस्कृतात्मा तथा विविध विभूतिविशिष्ट एक महापुरुष का लोकाभ्युदयकारक आविर्भाव आज (संवत् १९८१ वि.) से ५१५२ वर्ष पूर्व भाद्रपद कृष्ण-अष्टमी, बुधवार, रोहिणी नक्षत्र में उत्तर भारत के शूरसेन देश की राजधानी मथुरा में हुआ था। इसी शूरसेन देश के राजा उग्रसेन को उस का दुराचारी पुत्र कंस गद्दी से उतार कर आप राजा बन बैठा था, यह ऊपर कहा जा चुका है। कंस को जरासन्ध की दो पुत्रियां अस्ति और प्राप्ति नामक ब्याही थीं और अपने अत्याचारी श्वसुर के बूते पर वह हजारों अत्याचार करता था। प्रजा उस के पीड़न से तंग आ गई थी। प्रजा को कंस के अत्याचारों से बचाने का जो लोग उद्योग करते थे, उन का अग्रगन्ता यादववंशावतंस वसुदेव नामक एक वीर न्यायप्रिय पुरुषरत्न था। इसलिए कंस उस से सदैव जलता रहता था और भयभीत भी रहता था। उग्रसेन के कनिष्ठ भ्राता देवल की कन्या अर्थात् कंस की चचेरी भगिनी देवकी थी जो वसुदेव को ब्याही थी। कंस वसुदेव तथा देवकी की तेजिस्वता से आशंकित रहकर उन के नाश के प्रयत्न में सदा तत्पर रहता था। अन्त को उस ने वसुदेव और देवकी को उन के गृह में अवरुद्ध (नजरबन्द) कर दिया। किसी ने उस को यह सुझा दिया था कि देवकी के पुत्र के हाथ से तुम्हारा वध होगा। इसलिए उसने देवकी के छः पुत्रों को जन्मते ही मार डाला। सातवें गर्भ का भावी नाश के भय से मध्य में ही पात हो गया। श्री वसदेव जी अपनी ज्येष्ठा गर्भवती भार्या रोहिणी को कंस के अत्याचार की आशंका से गोकुल निवासी अपने मित्र नन्द नामक गोपाधिपति के घर पहुँचा आये थे।

भाद्रपद कृष्णाष्टमी की अंधियारी आधी रात को घनघोर वृष्टि के समय देवकी के आठवें पुत्र का जन्म हुआ। वर्षा की शीतल वायु ने पहरेदारों को थपकी देकर घोर निद्रा की गोद में सुला दिया। उसी समय बसुदेव उस बालक को रातेां रात यमुनापार करके नन्द के यहां गोकुल में पहुंचा आए और उसी रात नन्द के यहां उस की स्त्री यशोदा की कोख से तुरन्त जन्मी हुई कन्या को उसके बदले में उठा लाए और उसको देवकी के पास लाकर लिटा दिया। कंस ने उस को देवकी की कन्या समझकर मार डाला। इस के पहले ही नन्द के यहां रहने वाली वसुदेव की ज्येष्ठा भार्या रोहिणी के यहां भी पुत्र का जन्म हो चुका था। इस का नाम बलराम रक्खा गया था। देवकी का पुत्र भी कृष्ण नाम से गोकुल में नन्द के यहां गोपों में पलता रहा। उस समय भारत में नगरों के निकट बड़े-बड़े वन वर्तमान थे। जिन में लाखों गौएँ चर कर भव्य भारत को घृत और दुग्ध के प्रभाव से आप्यायित करती रहती थीं। मथुरा राजधानी के चारों ओर भी ऐसा ही विशाल वन विद्यमान था। उसी में गोपाधिप नन्द का अगणित गौओं का कुल रहता था और वह स्थान अपने अन्वर्थ नाम से गोकुल विख्यात था। वस्तुतः गौओं के ब्रज (समूह) के आवास के कारण ही मथुरा के चारों ओर की वनस्थली की ब्रज वा ब्रज-मण्डल संज्ञा हो गई थी। गोप लोग उसी ब्रजमण्डल के निवासी थे। वे अपने गोसमूह को साथ लिये हुए यत्र-तत्र कुछ-कुछ दिन बसते हुए घूमते रहते थे। ये स्वभाव के सरल, सहृदय तथा शरीर के हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ होते थे। मन और आत्मा को आनन्दित करके उन्नति देने वाला संगीत (गीत वाद्य) शारीरिक विकास के अद्वितीय साधन गोदुग्ध और द्यृत का आहार तथा मल्ल-कला का अभ्यास उन के अहर्निश के समय-यापक प्रिय व्यापार थे। ऐसे  लोगों में पलकर श्रीकृष्ण दिनोंदिन चन्द्रमा के समान वृद्धि को प्राप्त होने लगे। गोपों का निष्कपट प्रेम-वनों का बलप्रद यमुनातीरवर्ती स्वतन्त्र धीर समीर और आनन्दमय सरल जीवन का निष्पाप वायुमण्डल इन बातों ने मिलकर सहज सुन्दर श्याम शरीर श्रीकृष्ण को निष्कपट प्रेमी और अतुल पराक्रमी बना दिया। बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भ्राता अन्य गोपबाल-बालिकाओं के साथ क्रीड़ा में रत रह कर नन्द, यशोदा, रोहिणी और गोकुल के गोपमात्र को अपनी बाललीला से हर्षित करते रहते थे। गोपों के साथ रहकर श्रीकृष्ण मल्लकला और वेणुवादन वा वंशी बजाने में अति प्रवीण हो गये। उन की सुरीली मुरली के कारण ही उनका नाम मुरली मनोहर वा मुरलीधर पड़ गया था। वे मल्लकला में भी पूर्ण सिद्धहस्त हो गए थे। संगीत और मल्लकला में वे सब गोपों में अग्रणी माने जाने लगे। श्रीकृष्ण अपने इन गुणों तथा प्रेम और पराक्रम से गोपों के अतीव प्रेमपात्र बन गए। बाल्यकाल में ही उन्होंने शारीरिक बल का अद्भुत परिचय दिया। ब्रज के उत्तर की ओर यमुना के एक ह्नद में एक महाभयंकर काला अजगर रहता था जो कालिय नाम से प्रसिद्ध था। उस के भय से आस-पास के पशु-पक्षी यमुना के तट पर नहीं जाते थे। किशोर श्रीकृष्ण ने उस अजगर को वहां से मार भगाया।
            गोवर्धन पर्वत के उत्तर और यमुना के तट पर तालवन में वनगर्दभ बड़ा उपद्रव मचाते थे। इन में से एक बड़े बलवान् धेनुक नामक गर्दभराज को बलराज ने अपनी मल्लकला के बल से मार डाला, जिस से वह वन उन वनगर्दभों के उपद्रव से रहित हो गया। श्रीकृष्ण की उन्मत्त बैलों के युद्ध देखने की बड़ी रुचि थी। अन्य गोप भी ऐसे दृश्यों से बड़े प्रसन्न होते थे। यदि कोई अत्यन्त उन्मत्त बैल बेकाबू होकर दर्शकों पर पलटता था तो श्रीकृष्ण ही उस को अपने बाहुबल से वश में लाते थे। इसी प्रकार कृष्ण तथा बलराम के शारीरिक बल की ख्याति चारों ओर फैलने लगी और वह धीरे-धीरे कंस के कानों तक भी जा पहुंची। उस के गुप्तचरों ने खोज करके पता पा लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम वस्तुतः वसुदेव के पुत्र हैं और उस ने उन को नन्द के यहां गुप्त रूप में सुरक्षित रख छोड़ा है। यह जानकर कंस को बड़ी चिन्ता हुई और उसने नन्द के यहां ही कृष्ण के वध के अनेक उपाय किए, पर वे विफल हुए। किसी कवि ने क्या ही ठीक कहा है।
            अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।
            जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे विनश्यति ।।
            अर्थ-जिस की देव रक्षा करता है वह बिना रक्षा किये भी सुरक्षित रहता है, जिस के देव प्रतिकूल होता है वह अच्छी तरह से रक्षा करने पर भी नष्ट हो जाता है। वन में छोड़ा हुआ भी अनाथ जीता रहता है, और प्रयत्न करके घर में भी सुरक्षित नष्ट हो जाता है।
            उस ने कृष्ण के मारने के लिए नरपिशाची पूतना तथा अघासुर आदि अनेकों नृशंसों को ब्रज में भेजा, पर उन्होंने पराक्रमी श्रीकृष्ण के बलवान् भुजदण्ड से मृत्यु के मुख में प्रवेश पाया।
            महापराक्रमी महापुरुष अपने भावी उत्कर्ष का परिचय अपनी बाल्यावस्था से ही दिया करते हैं और वे सर्वसाधारण के अपवादस्वरूप होते हैं।
            अपने प्रयत्नों में विफलमनोरथ होकर कंस ने श्रीकृष्ण और बलराम के नाश के लिए एक षड्यन्त्र रचा। उसने मल्लकला में मल्लों के नैपुण्य प्रदर्शनार्थ एक मल्लयुद्ध का आयोजन किया। कुशल और अपने यहां के प्रसिद्ध मल्ल चाणूर और मुष्टिक से मल्लयुद्ध करने को कृष्ण और बलराम को बुलाने को ब्रज मण्डल में अक्रूर नामक वृद्ध यादव को भेजा। अक्रूर वहां जाकर कृष्ण और बलराम को अन्य बहुत से ब्रजवासियों सहित मथुरा लिवा लाया। वहां पहुंच कर प्रथम तो श्रीकृष्ण ने अपने अमोघ बल से अपना मार्ग रोकने वाले कंस के कुवलयापीड हाथी को उस का दांत उखाड़ कर मार गिराया और फिर कंस के विख्यात मल्लों मुष्टिक और चाणूर को मल्लयुद्ध में वध करके कंस को भी चोटी पकड़कर उस के सिंहासन से नीचे घसीट लिया और तत्काल उस के प्राणपखेरुओं को उस के पापी देह से सदा के लिए विदा कर दिया। श्रीकृष्ण कंस को मारकर उस के सिंहासन के अधिकारी स्वयं नहीं बने। वे उस के पिता उग्रसेन को सम्मानपूर्वक राजगद्दी पर बिठला कर आप एक सामान्य प्रजाजन के समान अपने माता-पिता वसुदेव और देवकी के पास मथुरा में रहने लगे। मथुरा की इस राज्यक्रान्ति से भारत में सर्वत्र श्रीकृष्ण की ख्याति फैल गई और उस समय के अत्याचारी राजा उन को अपना शत्रु समझने लगे। मगध नरेश जरासन्ध कंस का वध सुनकर अपनी पुत्रियों के वैधव्य से अतीव मर्माहत हुआ। श्रीकृष्ण पर उस के कोप की सीमा न रहीं। उस ने भारी सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण किया। श्रीकृष्ण ने यादवों की वीरवाहिनी से जरासन्ध के आक्रमण को विफल करके उस को वहां से मार भगाया। परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् जरासन्ध ने नई सेना लेकर अपने मित्र नरेशों सहित मथुरा पर फिर चढ़ाई की। मथूरा के वीर पूर्वयुद्ध से श्रान्त थे, इसलिए इस वार वृद्ध यादव विकद्रु की मन्त्रणा से उन्होंने जरासन्ध का सामना उचित न जाना और यह उपाय सोचा गया कि मथुरा को इस संकट से बचाने के लिए श्रीकृष्ण दक्षिण की ओर के पर्वतों पर चले जायें। वहां पर्वतों में जरासन्ध को उन से युद्ध करना कठिन हो जायेगा। तदनुसार श्रीकृष्ण मथुरा से दक्षिण के गोमन्त पर्वत पर चले गए। जरासन्ध भी ससैन्य उन का पीछा करता हुआ वहीं पहुँचा। गोमन्त पर्वत पर श्रीकृष्ण ने जरासंध की सेना के छक्के छुड़ा दिये और वहां से उस को अपने प्राण लेकर भागना पड़ा। दक्षिण में ही श्रीकृष्ण ने यादवकुलोत्पन्न करवीर नरेश श्रृगाल को युद्ध में मारकर उस के पुत्र को उसके राजसिंहासन पर बैठाया और वहां से चलकर फिर मथुरा लौट आए।
            नन्द के यहां बाल्य और किशोर अवस्था बिताते हुए श्री कृष्ण ने नियमपूर्वक गुरुकुल में रहकर विद्याभ्यास न किया था, न उन का अभी तक यथाशास्त्र उपनयन संस्कार ही हुआ था। इसलिए मथुरा आने पर    अब २१ वर्ष की आयु में उन का और बलराम का यज्ञोपवीत-संस्कार करके उन को उज्ज्वल भविष्य हेतु सान्दीपिन संकाश्य के गुरुकुल में नियमपूर्वक शास्त्र और शस्त्रविद्या के अभ्यास के लिए भेजा गया। वहां रहकर वे शीघ्र ही सांगोपांग वेदों और धनुर्विद्या के पारंगामी हो गए। गुरुकुल में वे अपने सहाध्यायी सुदामा आदि के साथ वन से समिधा, कुशा और फल लाने तथा गोपालन आदि गुरुसेवा में समान रूप से तत्पर रहते थे। गुरुकुल में विद्या समाप्त करके अपना समावर्त्तन कराकर मथुरा लौट आये और अपने माता-पिता के पास रहने लगे। इसी समय उन को अपने सम्बन्धियों का परिचय पाने और उन से मिलने का अवसर मिला। उनके पिता वसुदेव की भगिनी पृथा उपनाम कुन्ती हस्तिनापुर के राजा पाण्डु को विवाही थी। वानप्रस्थी पाण्डु की मृत्यु के पश्चात् वह अपने छोटे पुत्रों की रक्षा के लिए अपने मातृ धर्म के पालनार्थ उन को लेकर हिमालय से हस्तिनापुर आ गई थी। श्रीकृष्ण ने अक्रूर को उसके पास यह सन्देश देकर भेजा कि पराक्रमी कृष्ण तुम्हारे बालकों के सदा संरक्षक रहेंगे। उन्होंने हस्तिनापुर अधिराज धृतराष्ट्र, भीष्म और द्रोणादि से भी यह कहला भेजा कि मेरे फुफेर भाइयों का यथोचित पालन कीजिए। उस समय कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की अवस्था क्रमशः ७, ५, और ४ वर्ष की थी। श्री कृष्ण उस समय २५ वर्ष के युवा थे।
            चेदिदेश के राजा दमघोष की स्त्री अर्थात् शिशुपाल की माता भी महाराज वसुदेव की भगिनी और श्रीकृष्ण की बुआ थी, किन्तु पुत्र शिशुपाल कृष्ण से शत्रुता रखता था। उन्हीं दिनों विदर्भ (वर्तमान बरार) के राजा भीष्मक ने अपनी राजधानी कुण्डिनपुर में अपनी रूपवती कन्या रुक्मिणी का स्वयंवर रचाया। भीष्मक और उस का पुत्र रुक्मी भी जरासन्ध के दल में थे, इसलिए उन्होंने श्रीकृष्ण को स्वयंवर का निमन्त्रण नहीं भेजा परन्तु रुक्मिणी श्रीकृष्ण के पराक्रमों की कथा सुनकर उन को मन ही मन अपना पति वर चुकी थी। श्रीकृष्ण भी गुप्त रूप से इस का समाचार पाकर स्वयंवर में जा पहुँचे। परन्तु जरासन्ध और शिशुपाल आदि श्रीकृष्ण के ईर्ष्यालु राजाओं ने कृष्ण के मूर्धाभिषिक्त राजा न होने का बहाना बनाकर उन को स्वयंवर ही में सम्मिलित न होने दिया और इस गड़बड़ में स्वयंवर ही विलम्बित कर दिया गया। अब तीसरी बार जरासन्ध ने फिर मथुरा पर चढ़ाई की। उस ने पश्चिम की ओर से सम्भवतः भारतीय सीमा के बाहर से कालयवन को उभार कर मथुरा पर आक्रमण कराया और स्वयं पूर्व की ओर चढ़ दौड़ा। श्रीकृष्ण ने इस सम्मिलित शत्रु-सेना का सामना करने में यादवों को अशक्त पाकर पूर्व ही मथुरा को त्यागकर आनर्त (वर्तमान गुजरात देश) के निकट कुशस्थली द्वीप में अपने बन्धु-बान्धवों को जा बसाया और उस नई बस्ती का नाम द्वारिका रक्खा, जो समय पाकर यादवों की समृद्धिशालिनी राजधानी द्वारिकापुरी बन गई। श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी वहां के सम्राट् अभिषिक्त हुए। कालयवन और जरासन्ध की सेना कृष्ण का पीछा करती हुई पर्वतों में पहुंच कर नष्ट भ्रष्ट हो गई और कालयवन भी वहीं मृत्यु का ग्रास बन गया। फिर जरासन्ध को कृष्ण पर चढ़ाई करने का साहस न हुआ।

इधर श्रीकृष्ण अपने पराक्रम और बाहुबल से द्वारिका में समृद्ध राज्य स्थापित कर उस का संचालन कर रहे थे। उधर गंगा के तीर पर हस्तिनापुर में कौरव और पाण्डवों में राज्य-प्राप्ति के लिए षड्यन्त्र चल रहे थे। पांचो पाण्डव युवक अपनी माता कुन्ती सहित वारणावत के मेले में दुर्योधन के लाक्षागृह से बचकर इधर-उधर भ्रमण करते हुए पांचाल के नरेश द्रुपद की राजधानी में उसकी पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में पहुँचे। श्रीकृष्ण भी अपने पुत्र प्रद्युम्र के लिए पत्नी-प्राप्ति की इच्छा से सपरिवार उस स्वयंवर में गये थे। परन्तु स्वयंवर के मत्स्यवेध प्रण को कोई भी पूरा न कर सका। अन्त में ब्राह्मण वेशधारी मध्यम पाण्डव अर्जुन ने धनुष उठाकर मत्स्यवेध कर द्रौपदी से वरमाला पाकर उसका पाणिग्रहण किया। ब्राह्मण वेशधारी पुरुष के अर्जुन ज्ञात होने पर श्रीकृष्ण अपने पितृष्वसीय (फुफेरे) पाण्डवों और पितृष्वसा कुन्ती मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। अन्धराज धृतराष्ट्र ने कृष्ण और द्रुपद की सहायता प्राप्त पाण्डवों से भयभीत होकर तथा लोक लज्जा से पाण्डवों को हस्तिनापुर बुलाकर और दुर्योधन के भाग में धनधान्य-पूर्ण हस्तिनापुर (वर्तमान जिला मेरठ) की ओर का राज्य आया। और पाण्डवों को यमुना तीरवर्ती निर्जन खाण्डव वन मिला परन्तु पाण्डवों ने अपने पराक्रम और परिश्रम से खाण्डव वन को जलाकर यमुना तट पर खाण्डवप्रस्थ नगरी बसाकर उस को अपनी राजधानी बनाया। वह कुछ ही वर्षों में पाण्डवों के धर्म और न्यायानुमोदित शासन से समृद्धिशालिनी महानगरी बनकर इन्द्रप्रस्थ कहलाने लगी और राजपूती काल में दिल्ली के नाम से प्रसिद्ध होकर अब भी भारत की राजधानी बनी हुई है। पाण्डवों के राज्य की यहां तक उन्नति हुई तथा उनमें और श्रीकृष्ण में सौहार्द यहां तक बढ़ा कि उन्होंने श्रीकृष्ण की अनुमति और सहायता से चारों दिशाओं का दिग्विजय करके राजसूय यज्ञ करने का संकल्प किया।

सब से पूर्व श्रीकृष्ण ने सेना के बिना अर्जुन और भीम के साथ जरासन्ध की राजधानी राजगृह में पहुँचकर भीम से उस का शस्त्र रहित बाहुयुद्ध कराकर जरासन्ध को उस के हाथ से परलोक पहुँचाया और उस का राजसिंहासन उसके पुत्र सहदेव को देकर सानन्द इन्द्रप्रस्थ लौट आये। इस के अनन्तर अर्जुन ने उत्तर, भीम ने पूर्व, सहदेव ने दक्षिण और नकुल ने पश्चिम का दिग्विजय करके सब राजाओं को युधिष्ठिर का वशवर्ती बना दिया और ससमारोह राजसूय यज्ञ की आयोजना की गई। महर्षि कृष्ण-द्वैपायन व्यास इस यज्ञ के ब्रह्मा बने। याज्ञवल्क्य अध्वर्यु, धनंजय उद्गाता तथा पैल और धौम्य होता बनाए गए। स्वस्तिवाचन करके सोने के हल से यज्ञभूमि तैयार की गई और यज्ञायतन बनाए गए। महाराज युधिष्ठिर को यज्ञदीक्षा दी गई। देश-देशान्तरों से आए हुए राजा-महाराजाओं और कौरवों को यज्ञ के अतिथिसत्कार आदि कार्य बांट दिये गए। अवभृथ-स्नान से पूर्व श्रेष्ठ पुरुष की पूजा का अवसर आया। युधिष्ठिर ने कृताकृत के परीक्षक कुरुवृद्ध भीष्मपितामह से इस विषय में प्रश्न किया। उन्होंने कृष्ण को अग्रपूजा का अधिकारी बतलाया परन्तु श्रीकृष्ण के पुराने शत्रु उनके पितृष्वसीय शिशुपाल से उन का यह मान न सहा गया। वह क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण को कुवाच्य बकने लगा। भीष्मपितामह ने उस को बहुतेरा समझाया, किन्तु उसका क्रोध भड़कता ही जाता था। ज बवह श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा तो उन्होंने अपने सुदर्शनचक्र से उसका सिर काट दिया। इस के अनन्तर महाराजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ को विधिपूर्वक पूरा किया। उस में सम्मिलित सब ऋषि-मुनियों और राजाओं ने युधिष्ठिर को भारत का सम्राट् स्वीकार किया। परन्तु उनके साम्राज्य वैभव और उनके मय दानव निर्मित प्रशस्त राजप्रासादों को देखकर दुर्योधन ईर्ष्यानल से दग्ध हो गया। एक स्थान पर उस को स्फटिक के फर्श को देखकर जल की भ्रान्ति हो गई और वह अपने वस्त्र ऊपर उठा कर उस पर चलने लगा। वहां जल न पाकर वह बहुत लज्जित हुआ। दूसरे स्थल पर उसने जलपूर्ण सरोवर को स्फटिक शिला समझ कर और उस में गिरकर अपने वस्त्र भिगो लिये। इस पर द्रौपदी और पाण्डवों को हंसी आ गई। दुर्योधन के हृदय में इससे गहरा घाव हो गया और हस्तिनापुर लौटकर पाण्डवों के सर्वनाश का उपाय सोचने लगा। अपने शठ सभासदों से कुमन्त्रणा कर उसने युधिष्ठिर को अपने यहां बुलाकर द्यूत-क्रीड़ा में फंसाया। दुर्योधन के मामा सिद्धहस्त कितव (जुआरी) शकुनि ने छल से युधिष्ठिर का सारा राज्य उस की सहधर्मिणी द्रौपदी और चारों भ्राताओं सहित जुए में जीत लिया। दुष्ट दुःशासन के द्वारा भरी सभा में एकवस्त्रा द्रौपदी को उसके केश पकड़ कर घसीट मंगवाया और भरी सभा में उस को दासी कह कर अपमानित किया। मर्माहता द्रौपदी ने कुरुवृद्ध भीष्मपितामह आदि को सम्बोधित करके पूछा कि क्या मैं दुर्योधन की दासी कहला सकती हूँ। भीष्म ने उत्तर दिया युधिष्ठिर ने स्वयं दास होकर तुम को दांव पर रखा। यह अन्याय है, पर तुम दास युधिष्ठिर की अर्धांगिनी हो कर दासी हुई या नहीं यह कहना कठिन है। भीष्म पितामह की इस धर्मव्यवस्था को सुनकर दुर्योधन बड़ा आनन्दित हुआ और उस ने दुःशासन को पाण्डवों और द्रौपदी के अमूल्य वस्त्र उतार करके द्रौपदी को भी निर्वस्त्रा करना चाहा, किन्तु दीनवत्सल परमपिता परमात्मा ने द्रौपदी की लाज रखी ! द्रौपदी का वस्त्र दुष्ट दुःशासन न खींच सका। यहां श्रीकृष्ण के अलौकिक चरित्र के लेखकों ने यह गाथा वर्णित की है कि द्रौपदी के श्रीकृष्ण को स्मरण करने पर उन्होंने उस के वस्त्र को इतना बढ़ा दिया कि दुःशासन के हाथ उस को खींचते-खींचते अशक्त हो गए और वह उसके वस्त्र उतारने में असमर्थ रहा। किन्तु ऐतिहासिक बुद्धि इस वर्णन को स्वीकार नहीं कर सकती। सम्भव है कि सती, साध्वी, शूरक्षत्रिया, वीर वधू, वीरस्नुषा, द्रौपदी के अधृष्य तेज के सामने पापी दुर्बलहृदय दुःशासन का दुःसाहस उस की ओर हाथ बढ़ाने का न हुआ हो। ऐसी घटनाएं अनेक बार घटी हैं। तेजस्वियों के सामने बड़े-बड़े अत्याचारियों के हाथ भी रुक गये हैं, या सम्भव है कि धृतराष्ट्र आदि वृद्ध कौरवों ने बीच-बचाव करा दिया हो। आगे की घटना इस बात की पुष्टि भी करती है। इसके अनन्तर ही पाण्डवों के बारह वर्ष वनवास और तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास के पण पर पुनः द्यूत क्रीड़ा का वर्णन है। प्रतीत होता है कि बीच-बचाव करने वालों ने राजस्त्रुषा और राजवधू द्रौपदी का घोर अपमान टालने के लिए यह बात तय कर दी कि इस बार तो चारों भ्राता और द्रौपदी सहित युधिष्ठिर का राज्य उस को लौटा दिया जाए और दुर्योधन उपर्युक्त पण पर पासा फेंके और यदि युधिष्ठिर का सौभाग्य उसकी सहायता करे तो वह पूर्ववत् अपने साम्राज्य का सुखोपभोग करता रहे और यदि दैव उसके विपरीत हो तो वह सभार्याबान्धव बारह वर्ष और तेरहवें अज्ञात वर्ष (वस्तुतः आजीवन) वन में वास करे। क्योंकि कौरवों को अपनी कूट अक्षक्रीड़ा के भरोसे से यह पूर्ण निश्चय था कि हम दांव को जीत ही लेंगे और तेरहवें अज्ञात वर्ष में कहीं न कहीं पाण्डवों को पाकर उन को पुनः १२ वर्ष के लिए बाधित करते रहेंगे।
            जहां तक प्रबल अनुमान की पहुंच हो सकती है, उस से उपर्युक्त घटनाक्रम ही प्राप्त होता है। हमारे वर्तमान महाभारत आदि ऐतिहासिक ग्रन्थों के अलौकिक घटनावली के घटाटोप से आच्छादित रहते हुए बेचारे ऐतिहासिक को उपर्युक्त प्रकार से अन्धेरे में लकड़ी टटोलने के अतिरिक्त और गति क्या है? हां, भारतीय आर्यसामाजिक ऐतिहासिक पुरुष अपने पूर्वपुरुषों के गौरव पर दृष्टि रखते हुए ऐसा कहते हैं। किन्तु भारतीय गौरव से सहानुभूति शून्य और भारतीय आचार-विचार से सर्वथा अनभिज्ञ विदेशी ऐतिहासिकों से ऐसी आशा दुराशामात्र है। भारतीय इतिहास के कर्त्ता टालबोए ह्नीलर (Tallboy-Wheeler) कौशल्या के विष-प्रयोग से उत्तर कोसल (अवध नरेश) दशरथ का मृत्यु विषयक दूषित अनुमान इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
            अन्त में कौरवों की चाण्डाल चैकड़ी की मनचाही हुई। पासा युधिष्ठिर के उल्टा पड़ा और वे सपरिवार वनवासी बने।
            पांचों पाण्डव और द्रौपदी अपने पुरोहित धौम्य सहित काम्यक वन में वास कर रहे थे कि श्रीकृष्ण सपरिवार उन से मिलने आये। द्रौपदी ने रो-रो कर उन को अपनी विपत्ति कह सुनाई। श्रीकृष्ण ने उनको बहुत सान्त्वना दी और कहा कि मैं द्वारिका में नहीं था, इसी से यह अनर्थ हो गया। अन्यथा मैं अवश्य हस्तिनापुर पहुँच इस द्यूत की दुर्घटना को न होने देता। मैं शाल्व का पीछा करता हुआ, जिस ने वायुयानों द्वारा द्वारिका पर आक्रमण किया था, मार्तिकावर्त तक चला गया था और वहीं मैंने उस का वध किया। श्रीकृष्ण के इस कथन से भी उपर्युक्त अनुमान की पुष्टि होती है कि कृष्ण को उस समय द्यूतक्रीड़ा आदि का कुछ भी ज्ञान न था।
            इस समय श्रीकृष्ण की आयु ७० वर्ष के लगभग थी। वे गृहस्थाश्रम को पूरा करके और पौत्र अनिरुद्ध का मुख देकर वैदिक मर्यादानुसार तृतीय आश्रम में प्रवेश की तैयारी कर रहे थे और ऋषियों से ज्ञान-श्रवण और योगाभ्यास के लिए काम्यक वन में आये थे। बाल्यकाल तथा यौवन के मल्ल श्रेष्ठ और वीरवर श्रीकृष्ण अब योगिराज बन गये थे।
वनवास और अज्ञातवास को पूरा करके पाण्डव राजा विराट् की राजधानी विराट् नगरी (वर्तमान वैराट जो जयपुर से ४० मील उत्तर में है) मैं प्रकट हुए। तब श्रीकृष्ण अपनी भगिनी सुभद्रा जो अर्जुन को विवाही थी, भागिनेय अभिमन्य तथा यादवों सहित उन से वहीं आकर मिले। विराट् राज ने अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्य के साथ कर दिया। विवाह के पश्चात् सब ने सम्मति करके कौरवों के पास दूत भेजकर पाण्डवों को उनका राज वापस कर देने का सन्देश भेजा। राजर्षि भीष्म ने भी उनको यही परामर्श दिया परन्तु दुर्योधन को यह बात न भाई। और उस ने यह बहाना बनाया कि पाण्डव १४ वर्ष पूर्ण होने से पूर्व प्रकट हो गए हैं, अतः उनका राज्य वापस नहीं हो सकता। यह उत्तर सुनकर पाण्डवों ने युद्ध की तैयारी की। उन के पास अपनी सेना न थी। विराट् और द्रुपद आदि सम्बन्धियों ने अपनी सेनाओं और युद्ध सामग्री से उन को सहायता दी। श्रीकृष्ण भी पाण्डवों के सहायक बने। युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व श्रीकृष्ण ने एक बार फिर कौरवों के पास जाकर सन्धि कराने का उद्योग किया। वे हस्तिनापुर पहुँचकर प्रथम विदुर के यहां वास करने वाली अपनी बुआ कुन्ती से मिले। कुन्ती ने उनको कौरवों का दुराग्रह और दुश्चरित्र सुनाकर युद्ध की अवश्यम्भाविता बतलाई। उस ने कहा-

            यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः।

            अर्थ-क्षत्राणियां जिस लिए वीरों को उत्पन्न करती हैं उस का समय अब आ गया है।

            श्रीकृष्ण ने कौरवों की राजसभा में जाकर कहा-

            कुरूणां पाण्डवानां च शमः स्यादिति भारत।

            अप्रणाशेन वीराणाम् एतद्याचितुम् आगतः।।

            अर्थ-हे दुर्योधन ! वीरों के नाश के बिना ही कौरवों और पाण्डवों की शान्ति हो जाये, मैं यह याचना करने के लिए आया हूँ किन्तु दुर्योधन ने इस पर कुछ भी कान न दिया और यही कहा-

सूच्यग्रं न प्रदास्यामि विना युद्धेन केशव!

अर्थ-हे केशव! बिना युद्ध के मैं सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा।

अन्त में विवश होकर श्रीकृष्ण वापस चले आये और दोनों सेनाएं मारकाट करने के लिए कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के मैदान में आमने-सामने आ डटीं।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन के श्वेत घोड़ों वाले रथ के सारथि बन कर उस को पाण्डव सेना के अग्रभाग में ला खड़ा किया। कौरववाहिनी के सेनापति १७० वर्ष के वृद्ध भीष्मपितामह भी अपने रथ में अपनी सेनाओं के आगे आ उपस्थित हुए। दोनों सेनाओं ने अपने-अपने जयघोष से स्वसेनापतियों का स्वागत किया। बहुत से शंखों के नादों, भेरियों और नगाड़ों की ध्वनियों, हाथियों की चिंघाड़ों और घोड़ों की हिनहिनाहटों से आकाश प्रतिध्वनित हो उठा। दोनों सेनाओं में वीररस का पूर्ण संचार हो रहा था। इतने में अर्जुन को कौरव सेना में भीष्म, द्रोण आदि पूज्यों और निकट सम्बन्धियों को युद्ध में मरने-मारने के लिए उद्यत देखकर मोह उत्पन्न हो गया। उसने श्रीकृष्ण से कहा कि जिस युद्ध में अपने महामान्यों और प्रियों को अपने हाथ से मुझ को हनन करना पड़ेगा, उस में मैं प्रवृत्त न हूंगा। इस अवसर पर श्रीकृष्ण ने उस को उस के मोहनिवारण के लिए जो कर्मयोग का उपदेश दिया है, वही सारी उपनिषदों का सार कृष्णद्वैपायन की कीर्ति को अमर करने वाली ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है। उस के विषय में नीचे लिखा हुआ प्रचलित पद्य सर्वथा यथार्थ ही है-

            सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।

            पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।

अर्थ-सब उपनिषदें गौ हैं, श्रीकृष्ण उनका दुहने वाला है, अर्जुन उस का बछड़ा है, बुद्धिमान् लोग उस दुग्ध का उपभोग करने वाले हैं और गीतारूप महाअमृत ही यह दुग्ध है।

इस के आगे महाभारत का युद्ध किस प्रकार 18 दिन तक चलता रहा। किस प्रकार उस में भारत के ज्ञानी मानी वीर योद्धा और गोवर्धन एक-एक करके धराशायी हुए, उसमें कैसे कैसे कूटनीति के कुचक्र चले और अन्त में यही युद्ध पापपुंज के नाश के साथ-साथ भारत के सर्वनाश का भी कैसे कारण बना, यह विषय श्रीकृष्ण की पावनी जीवनी से नगण्य वा अतीव स्वल्प सम्बन्ध रखता है, इसलिए उस का वर्णन करके इस लेख की कलेवर वृद्धि अभीष्ट नहीं है।

एक बार त्रयोदशी में अमावस्या का संयोग हुआ और उसी में सूर्यग्रहण पड़ा। इस अवसर पर सारे यादव समुद्र में सरस्वती नदी के संगम स्थान प्रभास तीर्थ में स्नान के लिए गए। वहां की प्राकृतिक शोभा देखकर उन लोगों को मद्यपान की सूझी। बलराम, सात्यकि, गद, बभ्रु तथा कृतवर्मा आदि श्रीकृष्ण के सम्मुख ही निर्लज्ज होकर मद्य पीने लगे, सब के सब क्षण भर में उल्लू बन गये और परस्पर गाली-गलौच, मारपीट करने लगे। इस शुष्क कलह ने बढ़कर संग्राम का रूप धारण कर लिया और वहां एकत्रित भोज, अन्धक, यादव और श्रीकृष्ण के सारे पारिवारिक जन आपस में लड़कर कट मरे। केवल स्त्रियां ही बचीं, जिन को श्रीकृष्ण ने द्वारिका पहुंचा दिया। यादवों का इस प्रकार संहार देखकर श्रीकृष्ण और बलराम द्वारिका को छोड़कर वन में तपक रने चले गये। वहां बलराम ने योग द्वारा अपने प्राण ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकाल कर इस नश्वर शरीर को त्याग दिया। श्रीकृष्ण भी ब्रह्मासन लगाकर योगनिद्रा में वहीं लेटे थे। एक जरा नामक व्याध ने दूर से उन को हरिण समझ कर उनके बाण मारा, जो उनके पांव में आकर लगा और उसी से उनका देहान्त हो गया। इस प्रकार वसुदेव देवकी और नन्द-यशोदा के प्यारे पुत्र गोकुल के गोपसखा गोपाल मथुरा और वृन्दावन के प्राण कंस, जरासन्ध, कालयवन, शिशुपाल आदि के काल, द्वारिका के विधाता, पाण्डवों के परित्राता, धर्म के उपदेष्टा, नीति के तत्ववेता, राजा और प्रजा के गुरु, धर्मभ्रष्ट-क्षत्रियकुल के संहारक, धर्मराज्य के संस्थापक दीनों के उद्धारक, वेदशास्त्रपारंगत, चतुर-शिरोमणि सर्वगुणागार, सकल संसारादर्श मृत्युंजय, योगीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने चारुचरित्र से संसार को मुग्ध करके १२५ वर्ष की अवस्था में इहलोक-लीला संवरण की। उनके वृद्ध पिता वसुदेव जी इस दारुण शोक को न सह सके और इस संसार से चल बसे। सर्वत्र शोक की काली घटा छा गई। अर्जुन इस दुर्घटना की सूचना पाकर शोकसंतप्त हो हस्तिनापुर से द्वारिका आए और श्रीकृष्ण के परिवार के बालकों और विधवाओं को अपने साथ हस्तिनापुर ले गये। मार्ग में किरातों ने उनकी सम्पत्ति लूट ली। महाभारत के महावरी योद्धा अर्जुन के गाण्डीव धनुष ने इस समय कुछ भी काम न दिया। सच है, प्रताप क्षीण होने पर पाण्डवों ने हस्तिनापुर के राज्य सिंहासन पर अपने पौत्र परीक्षित को बिठलाकर अपनी पुरानी राजधानी इन्द्रप्रस्थ का राज्य श्रीकृष्ण के प्रपौत्र अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को देकर हिमालय के लिए महाप्रस्थान किया।

कृष्ण के जीवन पर एक दृष्टि

एक कृष्णभक्त )

            कृष्ण के चरित्र में सत्य प्रकट करना बड़ा ही कठिन है क्योंकि मिथ्या और अलौकिक घटनाओं की भस्म में यहां सत्य रूपी अग्नि ऐसी छिप गई है कि उस का पता लगाना टेढ़ी खीर है। जिन उपादानों से सच्चा कृष्ण चरित्र प्रकट हो सकता है वह असत्य के समुद्र में निमग्न हो गये हैं। फिर भी जितना सत्य उपलब्ध होता है, उस के आधार पर कृष्ण चरित्र का बड़ा उत्तम प्रतिपादन होता है।

            बचपन में श्रीकृष्ण आदर्श बलवान् थे। उस समय उन्होंने केवल शरीर बल से ही हिंसक जन्तुओं से वृन्दावन की रक्षा की थी और कंस के मल्लादि को भी मार गिराया था। गौ चराने के समय ग्वालों के साथ खेल-कूद और कसरत कर उन्होंने अपने शारीरिक बल की वृद्धि कर ली थी। कुरुक्षेत्र युद्ध में उन के रथ हांकने की भी बड़ी प्रशंसा पाई जाती है।

            अस्त्र शस्त्र की शिक्षा मिलने पर वे क्षत्रिय-समाज में सर्वश्रेष्ठ वीर समझे जाने लगे। उन्हें कभी कोई परास्त न कर सका। कंस, जरासन्ध, शिशुपाल आदि तत्कालीन प्रधान योद्धाओं से तथा काशी, कलिंग, गान्धार आदि राजाओं से वे लड़ गए और सब को उन्होंने हराया। सात्यकि और अभिमन्यु उन के शिष्य थे। वे दोनों भी सहज ही हारने वाले न थे। स्वयम् अर्जुन ने भी युद्ध की बारीकियां उन से सीखी थीं।

            केवल शारीरिक बल और शिक्षा पर जो रण-पटुता निर्भर है, वह सामान्य सैनिक में भी हो सकती है। सेनापतित्व ही योद्धा का वास्तविक गुण है। महाभारत आदि में एक भी अच्छे सेनापति का पता नहीं लगता। भीष्म या अर्जुन अच्छे सेनापति न थे। श्रीकृष्ण के सेनापतित्व का कुछ विशेष परिचय जरासन्ध युद्ध में मिलता है। उन्होंने अपनी मुट्ठी भर यादव सेना से जरासन्ध का सामना करना असाध्य समझ कर मथुरा छोड़ना, नया नगर बसाने के लिए द्वारिका द्वीप का चुनना और उसके सामने की रैवतक पर्वत माला में दुर्भेद्य दुर्ग निर्माण करना जिस रणनीति का परिचायक है, वह उस समय के और किसी क्षत्रिय में नही देखी जाती।

            कृष्ण की ज्ञानार्जनी वृत्तियां सब ही विकास की पराकाष्ठा को पहुंची हुई थी। वे अद्वितीय वेदज्ञ थे। भीष्म ने उन्हें अर्घ प्रदान करने का एक कारण यह भी बताया था। शिशुपाल ने इस का कुछ उत्तर नहीं दिया था। केवल इतना ही कहा था कि वेदव्यास के रहते कृष्ण की पूजा क्यों?

            कृष्ण ने वेद प्रतिपादित उन्नत, सर्वलोक हितकारी सब लोगों के आचरण योग्य धर्म का प्रसार किया।

            इस धर्म में जिस ज्ञान का परिचय मिलता है। वह प्रायः मनुष्य बुद्धि से परे है। श्रीकृष्ण ने मानुषी शक्ति से सब काम सिद्ध किए हैं। गीता कृष्ण की अनुपम देन है।

            श्रीकृष्ण मन से श्रेष्ठ और माननीय राजनीतिज्ञ थे। इसी से युधिष्ठिर ने वेदव्यास के कहने पर भी श्रीकृष्ण से परामर्श बिना राजसूय यज्ञ में हाथ नहीं लगाया। स्वेच्छाचारी यादव और कृष्ण की आज्ञा में चलने वाले पाण्डव दोनों ही उन से पूछे बिना कुछ नहीं करते थे। जरासन्ध को मार कर उस की कैद से राजाओं को छुड़ाना उन्नत राजनीति का अति सुन्दर उदाहरण है। यह साम्राज्य स्थापना का बड़ा सहज और परमोचित उपाय है। धर्मराज्य स्थापना के पश्चात् उस के शासन के हेतु भीष्म से राज्य-व्यवस्था ठीक कराना राजनीतिज्ञता का दूसरा बड़ा प्रशंसनीय उदाहरण है।

            कृष्ण की सब कार्यकारिणी वृत्तियां चरमसीमा तक विकसित हुई थीं। उन का साहस, उन की फुर्ती और तत्परता अलौकिक थी। उन का धर्म तथा सत्यता अचल थी। स्थान-स्थान पर उन के शौर्य, दयालुता और प्रीति का वर्णन मिलता है। वे शान्ति के लिए दृढ़ता के साथ प्रयत्न करते थे और इसके लिए वे दृढ़प्रतिज्ञ थे ‘वे सब के हितैषी थे। केवल मनुष्यों पर ही नहीं गोवत्सादि जीव जन्तुओं पर भी वे दया करते थे। वे स्वजन प्रिय थे। परलोक हित के लिए दुष्टाचारी स्वजनों का विनाश करने में कुण्ठित न होते थे। कंस का मामा था। उन के जैसे पाण्डव थे वैसे शिशुपाल भी था। दोनों ही उन की फूफी के बेटे थे। उन्होंने मामा और भाई का लिहाज न कर दोनों को ही दण्ड दिया।

            जब यादव लोग सुरापायी (शराबी) को उद्दण्ड हो गए थे। उन्होंने उन को भी अछूता न छोड़ा।

            श्रीकृष्ण आदर्श मनुष्य थे। मनुष्य का आदर्श प्रचारित करने के लिए उनका प्रादुर्भाव हुआ था। वे अपराजेय, अपराजित, विशुद्ध, पुण्यमय, प्रेममय, दयामय, दुढ़कर्मी, धर्मात्मा, वेदज्ञ, नीतिज्ञ, धर्मज्ञ, लोकहितैषी, न्यायशील, क्षमाशील, निर्भय, निरहंकार, योगी और तपस्वी थे। वे मानुषी शक्ति से काम करते थे परन्तु उन में देवत्व अधिक था। पाठक अपनी बुद्धि के अनुसार ही इस का निर्णय कर लें कि जिस की शक्ति मानुषी पर चरित्र मनुष्यातीत था, वह पुरुष मनुष्य या देव था। राइम डेविड्स ने भगवान् बुद्ध को हिन्दुओं में सब से बड़ा ज्ञानी और महात्मा माना है। (The wisest and the greatest of the Hindus) हम भी कृष्ण को ऐसा ही मानते है।

            (वकिंमचन्द्र चट्टोपाध्याय के कृष्णचरित्र के आधार पर)

महर्षि दयानन्द सरस्वती के महात्मा कृष्ण के प्रति

आदर सूचक उद्गार

‘‘देखो! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उन का गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिस में कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण जी ने जनम से मरण-पर्यन्त बुरा कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा, और इस भागवत वाले ने अनुचित मनमाने दोष लगाए हैं। दूध, दही, मक्खन आदि की चोरी लगाई और कुब्जा दासी से समागम, परस्त्रियों से रासमण्डल क्रीड़ा आदि मिथ्या दोष श्रीकृष्ण जी में लगाए हैं। इस को पढ़-पढ़ा, सुन-सुना के अन्यगत वाले श्रीकृष्ण जी की बहुत सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत न होता तो श्रीकृष्ण जी के सदृश महात्माओं की झूठी निन्दा क्योंकर होती है?’’

                                                                                    -सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११ ।।

            श्रीकृष्ण ने उच्च तत्वज्ञान और असीम वैराग्य के साथ कर्मयोग का अनुपम उपदेश अर्जुन को दिया है। उस से उन का महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता चला है और उनके प्रति श्रद्धा का भाव अधिकाधिक दृढ़ हो जाता है। सक्षीण-ऐश्वर्य विलुप्त वैभव और अवनत आर्य जाति को श्रीकृष्ण प्रभृति अपने महापुरुषों का ही अवलम्ब है, उन्हीं के सहारे वह श्वास ले रही है।

और जिस मल्लयुद्ध कला (कुश्ती) में श्रीकृष्ण सर्वोपरि सिद्धहस्त और पांरगत थे, उस का प्रदर्शन उनके स्मरण में किया जाये। अखाड़ों में मल्ल-कला के कौशल दिखलाए जायें। रात्रि वा सायंकाल के समय श्रीकृष्ण जयन्ती की स्मारक सभा करके उसमें श्रीकृष्ण-गुणगान और उनके तत्वदर्शन श्रीमद्भगवद्गीता पर उत्तम भाषण हों या निबन्ध-पाठ हों।

श्रीकृष्ण

(1)

हे कृष्ण प्यारे! कौन जन, किस को न तेरा ध्यान है?

वह कौन मन, जिस में न तेरा शेष अब अभिमान हैं?

है कौन शूर-समाज, जो गाता न तेरा गान है?

हे प्रिय हमारे ! शक्ति तेरी का न किस को ज्ञान है?

(2)

ब्रज के सघन ओट में वह मधुर वंशी की ध्वनि,

यमुना नदी के तीर वाली गोपगण की मण्डली।

हे कृष्ण ! हम भूले नहीं हैं आप की वे सब छटा,

चाहे हमारे चित्त पर हो दुःख की दारुण घटा।।

(3)

उस सरस वंशी ध्वनि का राग अद्भुत रस सना,

वर प्रेम से पूरा तथा सुख शान्ति का घर सा बना।

ब्रजभूमि के जल पवन, वृक्षों में सुनाई दे रहे,

श्रीकृष्ण प्यारे नाम से दुःख शोक सब का हर रहे।।

(4)

नीतिज्ञता सुविवेकता तेरी न किस पर ज्ञात है?

वात्सल्यता अनुरागता तेरी न किस पर ज्ञात है?

वह वीरता की छाप प्यारे है लगी तेरी यहां,

श्री कृष्ण ! आप समान जग में और जन होंगे कहां?

(5)

जो, कृष्ण प्यारे! सत्य का अवलम्ब तुम लेते नहीं,

तो सत्य ही संसार का इतिहास होता कुछ नहीं।

कर्त्तव्य में रत फिर न होते सत्य सज्जन जानिये,

सत्यांश से भी सत्य का उठना ही निश्चय मानिये।।

(6)

शिक्षा हमें यह आप बिना मिलती न कुछ संसार में,

कर्त्तव्य पथ पर निज रुधिर गिरता न हम से ताप में।

हे कृष्ण ! गीता बिना हमारा धैर्य बंधता ही नहीं,

जो कर्मयोग अलभ्य पथ है, आप बिन मिलता नहीं।।

(7)

उपदेश जो श्री कृष्ण ने हैं ग्रन्थ ‘गीता’ में दिए।

हैं पाठ्य वे बालक युवा वृद्धादि सब ही के लिए।।

(8)

यह महाभारत-युद्ध में दिखला दिया है कृष्ण ने।

‘डिगना न चाहिए सत्य से’ सर्वस्व बिगड़े या बने।।

(9)

उपदेश जो श्री कृष्ण का, यह सर्वथा ही ग्राह्य है।

भारत प्रजाओं के लिए सब भाव से निर्वाह्य है।।

(10)

प्यारे हमारे हेतु जो आदर्श तुम हो रख गए।

इस पुण्यपावन-देश की जो कीर्ति प्यारे कर गए।।

सौभाग्य गुण की लालिमा का रत्न जो तुम ने दिया।

उस ने हमारे देश में आलोक है फैला दिया।।

(11)

श्री कृष्ण यश है छा रहा, सर्वत्र भारतवर्ष में।

‘श्री कृष्णाष्टमी’ ‘जन्माष्टमी’ हैं कह रहे सब हर्ष में।।

                                                            शिवनारायण द्विवेदी

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