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01 संवत्सरेष्टि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा - Santasa
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01 संवत्सरेष्टि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा

अथ ऋत्विग्वरणम्
यजमानोक्तिः :- ओम् आवसो सदने सीद।
ऋत्विगुक्तिः :- ओं सीदामि।
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
ऋत्विगुक्तिः :- वृतोऽस्मि।

अथाचमन-मन्त्राः
ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।। १।। इससे एक
ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा।। २।। इससे दूसरा
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।। ३।। (तैत्तिरीय आरण्यक प्र. १०/अनु. ३२, ३५) इससे तीसरा आचमन करके तत्पश्चात् जल लेकर नीचे लिखे मन्त्रों से अंगों को स्पर्श करें।

अथ अङ्गस्पर्श-मन्त्राः
ओं वाङ्म आस्ये ऽ स्तु। इस मन्त्र से मुख
ओं नसोर्मे प्राणो ऽ स्तु। इस मन्त्र से नासिका के दोनों छिद्र
ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। इस मन्त्र से दोनों आंख
ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। इस मन्त्र से दोनों कान
ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु। इस मन्त्र से दोनों बाहु
ओम् ऊर्वोर्म ओजो ऽ स्तु। इस मन्त्र से दोनों जंघा
ओम् अरिष्टानि मे ऽ ङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। इस मन्त्र से दाहिने हाथ से जल स्पर्श करके मार्जन करना। (पारस्कर गृ.का.२/क.३/सू.२५)

अथ-ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासनामन्त्राः
ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न ऽ आसुव।। १।। (यजु अ.३०/मं.३)
हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए; जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
सकल जगत के उत्पादक हे, हे सुखदायक शुद्ध स्वरूप।
हे समग्र ऐश्वर्ययुक्त हे, परमेश्वर हे अगम अनूप।।
दुर्गुण-दुरित हमारे सारे, शीघ्र कीजिए हमसे दूर।
मंगलमय गुण-कर्म-शील से, करिए प्रभु हमको भरपूर।।

हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। २।। (यजु.अ.१३/मं.४)
जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि का धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
छिपे हुए थे जिसके भीतर, नभ में तेजोमय दिनमान।
एक मात्र स्वामी भूतों का, सुप्रसिद्ध चिद्रूप महान्।।
धारण वह ही किए धरा को, सूर्यलोक का भी आधार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

य ऽ आत्मदा बलदा यस्य विश्व ऽ उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छाया ऽ मृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ३।। (यजु.२५/१३)
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है। जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं। जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। जिसका आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है। जिसका न मानना अर्थात् भक्ति इत्यादि न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है। हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
आत्मज्ञान का दाता है जो, करता हमको शक्ति प्रदान।
विद्वद्वर्ग सदा करता है, जिसके शासन का सम्मान।।
जिसकी छाया सुखद सुशीतल, दूरी है दुःख का भंडार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ४।। (ऋ. १०/१२१/३)
जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है। जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य के देनेहारे परमात्मा की उपासना अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके उसकी विशेष भक्ति करें।
जो अनन्त महिमा से अपनी, जड़-जंगम का है अधिराज।
रचित और शासित हैं जिससे, जगतिभर का जीव समाज।।
जिसके बल विक्रम का यश का, कण-कण करता जयजयकार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।
यो ऽ न्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ५।। (यजु.अ.३२/मं.६)
जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है। जो आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं वैसे सब लोकों निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।
किया हुआ है धारण जिसने, नभ में तेजोमय दिनमान।
परमशक्तिमय जो प्रभु करता, वसुधा को अवलम्ब प्रदान।।
सुखद मुक्तिधारक लोकों का, अन्तरिक्ष में सिरजनहार।
सुखमय उसी देव का हवि से, यजन करें हम बारंबार।।

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ६।। (ऋ.म.१०/सू.१२१/मं.१०)
हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मा आप से भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरी हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वांच्छा करें, वह कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
जड़ चेतन जगति के स्वामी, हे प्रभु तुमसा और नहीं।
जहां समाए हुए न हो तुम, ऐसा कोई ठौर नहीं।।
जिन पावन इच्छाओं को ले, शरण आपकी हम आएं।
पूरी होवें सफल सदा हम, विद्या-धन-वैभव पाएं।।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतमानशाना- स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। ७।। (यजु.अ.३२/मं.१०)
हे मनुष्यों वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है। जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्व्रक विचरते हैं वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
भ्राता तुल्य सुखद् वह ही प्रभु, सकल जगत् का जीवन प्राण।
मानव के सब यत्न उसी की, करुणा से होते फलवान।।
सदानन्दमय धाम तीसरा, सुख-दुःख के द्वन्द्वों से दूर।
करके प्राप्त उसे ज्ञानी जन, आनन्दित रहते भरपूर।।

अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम ऽ उक्तिं विधेम।। ८।। (यजु.अ.४०/मं.१६)
हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार से नम्रतापूर्वक स्तुति सदा किया करें और आनन्द में रहें।
स्वयं प्रकाशित ज्ञानरूप हे ! सर्वविद्य हे दयानिधान।
धर्ममार्ग से प्राप्त कराएं, हमें आप ऐश्वर्य महान्।।
पापकर्म कौटिल्य आदि से, रहें दूर हम हे जगदीश।
अर्पित करते नमन आपको, बारंबार झुकाकर शीश।।

अथ स्वस्तिवाचनम्
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्।। १।। (ऋ.१/१/१)
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये।। २।। (ऋ.१/१/९)
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना।।३।। (ऋ.५/५१/११)
स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः।
बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः।। ४।। (ऋ.५/५१/१२)
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये।
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः।। ५।। (ऋ.५/५१/१३)
स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि।। ६।। (ऋ.५/५१/१४)
स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव। पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि।। ७।।
(ऋ.५/५१/१५)
ये देवानां यज्ञिया यज्ञियानां मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः।
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।। ८।। (ऋ.७/३५/१५)
येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पीयूषं द्यौ- रदितिरद्रिबर्हाः।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनुमदा स्वस्तये।। ९।। (ऋ.१०/६३/३)
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये।। १०।।
(ऋ.१०/६३/४)
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
ताँ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्याँ अदितिं स्वस्तये।। ११।। (ऋ.१०/६३/५)
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन।
को वोऽध्वरं तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहः स्वस्तये।। १२।।
(ऋ.१०/६३/६)
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतृभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये।। १३।। (ऋ.१०/६३/७)
य ईशिरे भुवनस्य प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः।
ते नः कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या देवासः पिपृता स्वस्तये।।
।। १४।। (ऋ.१०/६३/८)
भरेष्विन्द्रं सुहवं हवामहेंऽहोमुचं सुकृतं दैव्यं जनम्।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये।। १५।। (ऋ.१०/६३/९)
सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्।
दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। १६।। (ऋ.१०/६३/१०)
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्वतो देवा अवसे स्वस्तये।। १७।। (ऋ.१०/६३/११)
अपामीवामप विश्वामनाहुतिमपारातिं दुर्विदत्रा- मघायतः।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये।। १८।। (ऋ.१०/६३/१२)
अरिष्टः स मर्तो विश्व एधते प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्परि।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये।। १९।। (ऋ.१०/६३/१३)
यं देवासोऽवथ वाजसातौ यं शूरसाता मरुतो हिते धने।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये।। २०।। (ऋ.१०/६३/१४)
स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन।। २१।। (ऋ.१०/६३/१५)
स्वस्तिरिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वत्यभि या वाममेति।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा।। २२।। (ऋ.१०/६३/१६)
इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघश सो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।। २३।। (यजु.१/१)
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो- ऽ अपरीतासऽउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे।। २४।।
(यजु.२५/१४)
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना द्भञ रातिरभि नो निवर्त्तताम्।
देवाना द्भञ सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।।२५।।
(यजु.२५/१५)
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।। २६।। (यजु.२५/१८)
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽ अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।। २७।। (यजु.२५/१९)
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा द्भञ सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।। २८।। (यजु.२५/२१)
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि।। २९।। (सा.पू.१/१/१)
त्वमग्ने यज्ञाना द्भञ होता विश्वेषा द्भञ हितः।
देवेभिर्मानुषे जने।। ३०।। (सा.पू.१/१/२)
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वोऽअद्य दधातु मे।। ३१।। (अथर्व.१/१/१)

अथ शान्तिकरणम्
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ।। १।। (ऋ.७/३५/१)
शं नो भगः शमु नः शंसो अस्तु शं नः पुरन्धिः शमु सन्तु रायः।
शं नः सत्यस्य सुयमस्य शंसः शं नो अर्यमा पुरुजातो अस्तु।। २।। (ऋ.७/३५/२)
शं नो धाता शमु धर्ता नो अस्तु शं न उरूची भवतु स्वधाभिः।
शं रोदसी बृहती शं नो अद्रिः शं नो देवानां सुहवानि सन्तु।। ३।। (ऋ.७/३५/३)
शं नो अग्निर्ज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्।
शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः।। ४।। (ऋ.७/३५/४)
शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु।
शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः।। ५।। (ऋ.७/३५/५)
शं न इन्द्रो वसुभिर्देवो अस्तु शमादित्येभिर्वरुणः सुशंसः।
शं नो रुद्रो रुद्रेभिर्जलाषः शं नस्त्वष्टा- ग्नाभिरिह शृणोतु।। ६।। (ऋ.७/३५/६)
शं नः सोमो भवतु ब्रह्म शं नः शं नो ग्रावाणः शमु सन्तु यज्ञाः।
शं नः स्वरूणां मितयो भवन्तु शं नः प्रस्वः शम्वस्तु
वेदिः।। ७।। (ऋ.७/३५/७)
शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चस्रः प्रदिशो भवन्तु।
शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः।। ८।। (ऋ.७/३५/८)
शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः।
शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः।। ९।।
(ऋ.७/३५/९)
शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तूषसो विभातीः
शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः।। १०।। (ऋ.७/३५/१०)
शं नो देवा विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु।
शमभिषाचः शमुरातिषाचः शं नो दिव्याः पार्थिवाः शं नो अप्याः।। ११।।
(ऋ.७/३५/११)
शं नः सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्तः शमु सन्तु गावः।
शं नः ऋभवः सुकृतः सुहस्ताः शं नो भवन्तु पितरो हवेषु।। १२।।
(ऋ.७/३५/१२)
शं नो अज एकपाद्देवो अस्तु शं नोऽहिर्बुध्न्यः शं समुद्रः।
शं नो अपां नपात्पेरुरस्तु शं नः पृश्निर्भवतु देवगोपाः।। १३।। (ऋ.७/३५/१३)
इन्द्रो विश्वस्य राजति। शन्नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे।। १४।। (यजु.३६/८)
शन्नो वातः पवता द्भञ शन्नस्तपतु सूर्य्यः।
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽअभि वर्षतु।। १५।। (यजु.३६/१०)
अहानि शम्भवन्तु नः श रात्रीः प्रति धीयताम्।
शन्न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या।
शन्न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयोः।। १६।। (यजु.३६/११)
शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः।। १७।। (यजु.३६/१२)
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। १८।। (यजु.३६/१७)
तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। १९।। (यजु.३६/२४)
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरग्मं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २०।। (यजु.३४/१)
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२१।। (यजु.३४/२)
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।। २२।। (यजु.३४/३)
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२३।। (यजु.३४/४)
यस्मिन्नृचः साम यजू द्भञ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिँश्चित्त सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२४।। (यजु.३४/५)
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।२५।।
(यजु.३४/६)
स नः पवस्व शं गवे शं जनाय शमर्वते।
श द्भञ राजन्नोषधीभ्यः।। २६।। (साम.उ.१/१/३)
अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।
अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरा- दभयं नो अस्तु।।२७।। (अथर्व.१९/१५/५)
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।।२८।। (अथर्व.१९/१५/६)

अग्न्याधानम्
ओं भूर्भुवः स्वः। (गोभिल.गृ.प.१/खं.१/सू.११)
ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे ऽ ग्निमन्ना दमन्नाद्यायादधे।। (यजृ.अ.३/मं.५)
ओम् उद् बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स ँ् सृजेथामय९च। अस्मिन्त्सधस्थे ऽ अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चसीदत।। (यजु. १५/५४)
समिदाधानम्
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। १।।
(आश्वलायन गृ.सू. १/१०/१२) इस मन्त्र से घृत में डुबोकर पहली..
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा।।
इदमग्नये – इदन्न मम।। २।। (यजु. ३/१)
इससे और..
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। ३।। (यजु.३/२)
इस मन्त्र से अर्थात् दोनों मन्त्रों से दूसरी और..
तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि।
बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा।। इदमग्नये ऽ ङ्गिरसे – इदन्न मम।। ४।। (यजु. ३/३)
इस मन्त्र से तीसरी समिधा समर्पित करें। उक्त मन्त्रों से समिधाधान करके नीचे लिखे मन्त्र को पांच बार पढ़कर पांच घृताहुतियां दें।

प९चघृताहुतिमन्त्रः
ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदग्नये जातवेदसे – इदन्न मम।। (आश्व.गृ.सू. १/१०/१२)

जलसि९चनमन्त्राः
ओम् अदिते ऽ नुमन्यस्व।। १।। इससे पूर्व में
ओम् अनुमते ऽ नुमन्यस्व।। २।। इससे पश्चिम में
ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।। ३।। इससे उत्तर दिशा में
ओं देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।। (यजु.३०/१)
इस मन्त्रपाठ से वेदी के चारों ओर जल छिड़काएं।

आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।। (गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।। (यजु.२२/२७)
इन दोनों मन्त्रों से वेदी के मध्य में दो आहुतियां दें। उक्त चार घृत आहुतियां देकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से प्रातःकाल अग्निहोत्र करें।

प्रातःकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। १।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९)
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।। ४।। (यजु. ३/१०)
अब नीचे लिखे मन्त्रों से प्रातः सांय दोनों समय आहुतियां दें।

प्रातः सांयकालीनमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।। (गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम।। ४।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधया ऽ ग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। ६।। (यजु.३२/१४)
ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रन्तन्न ऽ आसुव स्वाहा।। ७।। (यजु.३०/३)
ओम् अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम स्वाहा।। ८।।
(यजु.४०/१६)

सायंकालीन-आहुतिमन्त्राः
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। १।।
ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।। ३।।
(यजु. ३/९ के अनुसार)
इस मन्त्र को मन में बोल कर आहुति दें।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या।
जुषाणो ऽ अग्निर्वेतु स्वाहा।। ४।। (यजु.३/९, १०)
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १।।
(गोभिगृह्यसूत्र०प्र.१/खं.३/यू. १-३)
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
(तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनैकीकृता ऋ.भा.भू. पंचमहा.)
ओम् आपो ज्योतीरसो ऽ मृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।। ५।। (तैत्तिरीयोपनिषदाशयेनरचितः प९चमहायज्ञ.)
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु.३६/३)
इस मन्त्र से तीन आहुतियां दें।

पूर्णाहुति-प्रकरणम्
आघारावाज्यभागाहुतिमन्त्राः
ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये – इदन्न मम।। १।।
इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग अग्नि में
ओं सोमाय स्वाहा।
इदं सोमाय – इदन्न मम।। २।।
(गो.गृ.प्र.१/खं.८/सू.२४)
इससे दक्षिण भाग अग्नि में
ओं प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ३।। (यजु. २२ / ३२)
ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय – इदन्न मम।। ४।।
इन दो मन्त्रों से वेदी के मध्य में आहुति देनी, उसके पश्चात् उसी घृतपात्र में से स्रुवा को भरके प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की निम्न चार आहुतियाँ देवे।
व्याहृत्याहुतिमन्त्राः
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय – इदन्न मम।। १।।
ओं भुवर्वायवे ऽ पानाय स्वाहा।
इदं वायवे ऽ पानाय – इदन्न मम ।। २।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय – इदन्न मम।। ३।।
निम्न मन्त्र से स्विष्टकृत् होमाहुति भात की अथवा घृत की देवें।
यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात् सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे।
अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा।।
इदमग्नये स्विष्टकृते – इदन्न मम।। १।। (आश्व.१/१०/२२)
ओं प्रजापतये स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। २।।
(यजु.१८/२२) इस प्राजापत्याहुति को मन में बोलकर देनी चाहिए।
आज्याहुतिमन्त्राः (पवमानाहुतयः)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ३।। (ऋ.९/६६/१९)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्निर्ऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ४।।
(ऋ.९/६६/२०)
ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषं स्वाहा।। इदमग्नये पवमानाय – इदन्न मम।। ५।।
(ऋ.९/६६/२१)
ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणां स्वाहा।। इदं प्रजापतये – इदन्न मम।। ६।।
(ऋ.१०/१२१/१०)
इनसे घृत की चार आहुतियाँ करके ‘अष्टाज्याहुति’ के निम्नलिखित मन्त्रों से सर्वत्र मंगल कार्यों में आठ आहुति देवें।
त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेळोऽवयासिसीष्ठाः।
यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ७।। (ऋ. ४/१/४)
स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ।
अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा।। इदमग्निवरुणाभ्याम् – इदन्न मम।। ८।।
(ऋ.४/१/५)
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय।
त्वामवस्युराचके स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। ९।। (ऋ.१/२५/१९)
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा।। इदं वरुणाय – इदन्न मम।। १०।। (ऋ.१/२४/११)
ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः।
तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा।। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यः – इदन्न मम।। ११।।
(का.श्रौत.२५/१/११)
अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयाऽसि।
अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज द्भञ स्वाहा।। इदमग्नये अयसे – इदन्न मम ।। १२।। (का.श्रौत.२५/१/११)
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा।। इदं वरुणाया ऽऽ दित्यायाऽदितये च – इदन्न मम।। १३।।
(ऋ.१/२४/१५)
भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ।
मा यज्ञ हि सिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा।। इदं जातवेदोभ्याम्-इदन्न मम।। १४।। (यजु.५/३)

नवसंवत्सरोत्सवः (संवत्सरेष्टि)

संवत्सरोऽसि परिवत्सरोऽसीदावत्सरोऽसीद्वत्सरोऽसि वत्सरोऽसि। उषसस्ते कल्पन्तामहोरात्रास्ते कल्पन्तामर्धमासास्ते कल्पन्तां मासास्ते कल्पन्तामृतवस्ते कल्पन्तां संवत्सरस्ते कल्पताम् प्रेत्या एत्यै  संचांच प्र च सारय। सुपर्णचिदसि तया देवतयागिंरस्वद् ध्रुवः सीद ।। १ ।।

                                                                                                            -यजुर्वेद २७ । ४५ ।।

            यमास यमसूमथर्वभ्योऽवतोकां संवत्सराय पर्य्यायिणी परिवत्सरायाविजातामिदावत्सरायातीत्वरीमिद्वत्सरायातिष्कद्वरीं वत्सराय विजर्जरां संवत्सराय पलिक्नीमृभुभेऽजिनसन्धरं साध्येभ्यश्चर्मम्नम् ।। १ ।।                                                                                                                                                                             -यजुर्वेद ३० । १५ ।।

            द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत।

            तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शंकवोऽर्पिताः पष्टिर्न चलाचलासः ।। ३ ।।

                                                                                                -ऋ. १ । १६४ । ४८ ।।

            सप्त युंजन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा।

            त्रिनामा चक्रमजरमनर्व यत्रेमा विश्वा भुवनाधितस्थुः ।। ४ ।।

                                                                                                            -ऋ. १ । १६४ । २ ।।

            द्वादशारं नहि तज्जराय वर्वर्त्ति चक्रं परि द्यामृतस्य।

            आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंशतिश्च तस्थुः ।। ५ ।।

            पंचपादं पितंर द्वाद्वशाकृतिं दिव आहुः परे अर्धे पुरीषिणम्।

            अथेमे अन्य उपरे विचक्षणं सप्तचक्रे षळर आहुरर्पितम् ।। ६ ।।

            पंचारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्नातस्थुर्भुवनानि विश्वा।

            तस्य नाक्षस्तप्यत भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः ।। ७ ।।

            सनेमि चक्रमचंर विवावृत उत्तानायां दश युक्ता वहन्ति ।

            सूर्यस्य चक्षु रजसैत्यावृतं तस्मिन्नार्पिता भुवनानि विश्वा।। ८ ।।

                                                                                    -ऋ. १ । १६४ । ११, १२, १३, १४ ।।

            संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वा रात्र्युपास्महे।

            सा न आयुष्मती प्रजां रायस्पोषेण संसृज ।। ९ ।।

                                                                                                -अथर्व. ३ । १० । १ ।।

            यस्मान्मासा निर्मितास्त्रिंशदसः संवत्सरो यस्मान्निर्मितों द्वाद्वशारः।

            अहोरात्रा ये परियन्तो नापुस्तेनौदनेनातितराणि मृत्युम्।। १० ।।

                                                                                                -अथर्व. ४ । ३५ । ४ ।।

ओ3म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजु 36/3) इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां दे

पूर्णाहुति-मन्त्राः
ओं सर्वं वै पूर्ण ँ् स्वाहा। इस मन्त्र से तीन बार केवल घृत से आहुतियां देकर अग्नि होत्र को पूर्ण करें।

(५) अथ भूतयज्ञः (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
निम्नलिखित दस मन्त्रों से घृत-मिश्रित भात की यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़कर पाकशाला में जो कुछ भोजन बना हो उसी की आहुति देवें।
ओम् अग्नये स्वाहा।। १।। ओं सोमाय स्वाहा।। २।।
ओम् अग्निषोमाभ्यां स्वाहा।। ३।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।। ४।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।। ५।। ओम् कुह्वै स्वाहा।। ६।। ओम् अनुमत्यै स्वाहा।। ७।। ओं प्रजापतये स्वाहा।। ८।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।। ९।। ओें स्विष्टकृते स्वाहा।। १।।
तत्पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रों से बलिदान करें। एक पत्तल अथवा थाली में यथोक्त दिशाओं में भाग रखना। यदि भाग रखने के समय कोई अतिथि आ जाए तो उसी को देना अथवा अग्नि में डालना चाहिए।
ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। १।। (इससे पूर्व)
ओं सानुगाय यमाय नमः।। २।। (इससे दक्षिण)
ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ३।। (इससे पश्चिम)
ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ४।। (इससे उत्तर)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ५।। (इससे द्वार)
ओं अद्भ्यो नमः।। ६।। (इससे जल)
ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ७।। (इससे मूसल व ऊखल)
ओं मरुद्भ्यो नमः।। ८।। (इससे ईशान)
ओं भद्रकाल्यै नमः।। ९।। (इससे नैऋत्य)
ओं ब्रह्मपतये नमः।। १०।।
ओं वस्तुपतये नमः।। ११।। (इनसे मध्य)
ओं विश्वभ्यो देवेभ्यो नमः।। १२।।
ओं दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १३।।
ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। १४।। (इनसे ऊपर)
ओं सर्वात्मभूतये नमः।। १५।। (इससे पृष्ठ)
ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। १६।। (इससे दक्षिण) -मनु. ३/८७-९१
तत्पश्चात् घृतसहित लवणान्न लेके-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।
वायसानां कृमीणां च शनकैर्निवपेद् भुवि।।
(मनु. ३/९२)
अर्थ :- कुत्ता, पतित, चाण्डाल, पापरोगी, काक और कृमि- इन छः नामों से छः भाग पृथ्वी पर धरे और वे भाग जिस-जिस नाम के हों उस-उस को देवें।

(६) अतिथियज्ञः
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्।। १।।
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावासीत्सीर्व्रा- त्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथाऽस्त्विति।। २।।
(अथर्व. १५/११/१,२)
जब पूर्ण विद्वान् परोपकारी सत्योपदेशक गृहस्थों के घर आवें, तब गृहस्थ लोग स्वयं समीप जाकर उक्त विद्वानों को प्रणाम आदि करके उत्तम आसन पर बैठाकर पूछें कि कल के दिन कहाँ आपने निवास किया था ? हे ब्रह्मन् जलादि पदार्थ जो आपको अपेक्षित हों ग्रहण कीजिए, और हम लोगों को सत्योपदेश से तृप्त कीजिए।
जो धार्मिक, परोपकारी, सत्योपदेशक, पक्षपातरहित, शान्त, सर्वहितकारक विद्वानों की अन्नादि से सेवा और उनसे प्रश्नोत्तर आदि करके विद्या प्राप्त करना अतिथियज्ञ कहाता है, उसको नित्यप्रति किया करें।

यज्ञ-प्रार्थना
पूजनीय प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए।
छोड देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचाएं सत्य को धारण करें।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें।।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को।
धर्म मर्यादा चलाकर लाभ दें संसार को।।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएं पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नारि की।।
लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए।।
स्वार्थ भाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
इदन्न मम का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो।।
हाथ जोड़ झुकाएं मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ! करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे।।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।
हे नाथ सब सुखी हों, कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवन, धन-धान्य के भंडारी।
सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों।
दुःखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी।

शान्ति पाठः
ओं द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ँ् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ँ् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। (यजु.३६/१७)
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

जल में थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में अग्नि पवन में।

ओषधि वनस्पति वन उपवन में, सकल विश्व में जड़ चेतन में।। 1।।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

ब्राह्मण के उपदेश वचन में, क्षत्रिय के द्वारा हो रण में।

वैश्य जनों के होवे धन में, और सेवक के परिचरणन में।। 2।।

शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

शान्ति राष्ट्र निर्माण सृजन में, नगर ग्राम में और भवन में।

जीव मात्र के तन में मन में, और जगत के हो कण कण में।। 3।। शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में

1. नवसंवत्सरोत्सवः (संवत्सरेष्टि)

चैत्र सुदि प्रतिपदा अथवा मेष संक्रान्ति


                                    ओ३म् ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
                                                ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽअर्णवः ।। १ ।।
                                                समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत।
                                                अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतपो वशी ।। २ ।।
                                                                                                            -ऋ. १० । १९० । १-२ ।।
                                    स्वस्ति भहज्जन ! स्वागत सज्जन ! आशाभाजन प्यारे !
                                    नवसंवत्सर ! समयराज के वत्स रसाल दुलारे !
                                    स्वागत आगामिनी भामिनी के प्रिय बालक बारे !
                                    स्वागत, स्वागत् ! स्वस्ति नवागत आदर योग्य हमारे !
                                                                                                            कविवर पूर्ण

अनादि पुरुष करुणालय परमपिता परमेश्वर ने अपने अपार अनुग्रह से स्वकीय अनादि ज्ञान ऋग्वेद की उपर्युक्त श्रुतियों में सृष्ट्युत्पत्ति क्रम का उपदेश देते हुए बतलाया है कि प्रदीप्त आत्मिक तप के तेज से ऋत और सत्य नामक सार्वकालिक और सार्वभौमिक नियमों का प्रथम प्रादुर्भाव हुआ। तत्पश्चात् प्रलय की रात्रि हो गई। (किन्हीं भाष्यकार के मत से यहां रात्रि शब्द अहोरात्र का उपलक्षण है और वे उस से प्रलय का ग्रहण न करके इसी कल्प की आदि सृष्टि में ऋत और सत्य के अनन्तर अहोरात्र का आविर्भाव मानते हैं।) फिर मूल-प्रकृति में विकृति होकर उस के अन्तरिक्षस्थ समुद्र के प्रकट होने (उसके क्षुब्ध होने) के पश्चात् विश्व के वशीकर्त्ता विश्वेश्वर ने अहोरात्रों को करते हुए (अहोरात्राणि विदधत्कुर्वाणः आनन्दाश्रम संस्कृतग्रन्थावली सन्ध्या-भाष्यसमुच्चय पृष्ठ ९) संवत्सर को जन्म दिया। इस से ज्ञात होता है कि आदि सृष्टि में प्रथम सूर्योदय के समय भी संवत्सर और अहोरात्रो की कल्पना पर ब्रह्म के अनन्त ज्ञान में विद्यमान थी। उनके जन्म देने का यहां यही अभिप्राय प्रतीत होता है कि वेदोपदेश द्वारा इस संवत्सरारम्भ और उस के मन की कल्पना का ज्ञान सर्वप्रथम मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को  हुआ वा यों कहिये कि प्रत्येक सृष्टिकल्प आदि में यथानियम होता है और उन्होंने यह जान लिया कि इतने अहोरात्रों के पश्चात् आज के दिन नवसंवत्सर के आरम्भ का नियम है और उसी के अनुसार प्रतिवर्ष संवत्सरारम्भ होकर वर्ष, मास और अहोरात्र की कालगणना संसार में प्रचलित हुई।

अतः यह वैदिक धर्म का सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि वेदों के शब्दों से ही संसार में सारी संज्ञाओं (पदार्थों के नामो) का प्रचार होता है, जैसा कि महर्षि मनु ने अपनी स्मृति में लिखा है-

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्-पृथक्।

वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे।। -मनु. १ । २१

अर्थात् उस परमात्मा ने सृष्टि के आदि में सब के पृथक्-पृथक् नाम, क्रम और व्यवस्था वेदों के शब्दों को लेकर ही बनाई। सृष्टि कल्प के आद्य ऋषियों की वाणी वा उनके शब्दों के अनुसार ही वाच्य अर्थ का प्रादुर्भाव होता है, अर्थात् उन के शब्दों को लेकर ही पदार्र्थों की परम्परा प्रचलित होती है। तदनुसार ‘मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू’।   -यजुर्वेद १३ । २५ ।।

वेद की इस श्रुति में आए हुए मधु तथा माधव शब्दों को लेकर वसन्त ऋतु के मासों के नाम पड़े हैं और क्रमानुसार आदिम प्रथम मास का नाम मधु और द्वितीय मास का माधव रक्खा गया।

कालक्रम से आगे चलकर ज्योतिष विद्या के विकास और विस्तार के समय काल की चन्द्रगणना प्रचलित होने पर मासों के मधु आदि वैदिक नाम बदल कर चैत्र आदि चान्द्र नाम रक्खे गये। चान्द्र मासों का नामकरण इस नियम से किया गया था कि जिस पूर्णिमा को जो नक्षत्र पड़े वह पूर्णिमा उसी नक्षत्र की नामधारणी होगी। और पूर्णिमा के नक्षत्र युक्त नाम के अनुसार ही मास का नाम भी रक्खा जायेगा। महामुनि पाणिनी ने अपने प्रसिद्ध अष्टाध्यायी व्याकरण में इस नियम को यों सूत्रित किया है-

सास्मिन्पूर्णमासीति।

वृत्ति-प्रथमासमर्थात्पौर्णमासीविशेषाचिनः शब्दात् अस्मिन्निति सप्तम्यर्थे यथाविहितः प्रत्ययो भवति।

अर्थ-पौर्णमासीविशेषवाची शब्द से सप्तम्यर्थ में (जिस शब्दवाचक मास में वह पौर्णमासी पड़े, उस शब्द से) यथाविहित प्रत्यय हो।

यथा-चित्रानक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी चैत्री, सा चैत्री पौर्णमासी यस्मिन् स चैत्रो मासः। अर्थात् जिस पूर्णमासी को चित्रा नक्षत्र हो वह चैत्री कहलायेगी और चैत्री पूर्णमासी जिस मास में पड़ेगी वह चैत्र मास होगा। इसी नियम के अनुसार मासों के चैत्र, वैशाख आदि नाम प्रचलित हुए हैं।

            उपर्युक्त विवेचनानुसार ही यह इतिहास बन गया कि सृष्टि का आरम्भ चैत्र के प्रथम दिन अर्थात् प्रतिपदा को हुआ था, क्योंकि सृष्टि का प्रथम मास वैदिक संज्ञानुसार मधु कहलाता था और वही फिर ज्योतिष में चान्द्र काल गणनानुसार चैत्र कहलाने लगा था। इसी की पुष्टि में ज्योति के हिमाद्रि ग्रन्थ में निग्नलिखित श्लोक आया है-

            चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथगेऽहनि।

            शुक्लपक्षे समग्रन्तु तदा सूर्योदये सति।।

अर्थ-चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत् की रचना की ।

            प्रसिद्ध ज्यौतिषाचार्य भास्कराचार्य कृत ‘सिद्धान्तशिरोमणि’ का निम्नलिखित पद्य भी इसी पक्ष का पोषक है-

            लंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारं प्रथमं बभूवं।

            मधोः सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्तिः।।

भावार्थ-लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी के वार अर्थात् आदित्य वार में चैत्र मास शुक्ल पक्ष के आरम्भ में दिन मास वर्ष युग आदि एक साथ आरम्भ हुए।

            आगे चलकर इस पूर्व परम्परानुसार आर्यों  के अधिकांश संवत् चैत्र प्रतिपदा से ही आरम्भ हुए।

            ब्रह्म दिन, सृष्टि संवत्, वैवस्वतादिमन्वन्तरारम्भ, सत्युगादि, युगारम्भ, कलि संवत्, वैक्रमसंवत्, चैत्र सुदि प्रतिपदा को ही आरम्भ होता है।

            आदि सृष्टि से ही आर्य जाति में नवसंवत्सरारम्भ का पर्व मनाने की प्रथा प्रचलित है। मुसलमानी राज्य में आर्यो की सनातन संस्थाएं अस्त-व्यस्त होने पर भी नवसंवत्सरोत्सव के ससमारोह मनाने की परिपाटी बराबर बनी हुई थी। इस का प्रमाण प्रसिद्ध परमतासहिष्णु, पक्षपाती, अत्याचारी मुगल सम्राट् औरंगजेब के अपने ज्येष्ठ पुत्र युवराज मुहम्मद मोअज्जम के नाम एक पत्र से मिलता है, जिस में उस ने घृणित शब्दों में लिखा था कि-

            अक्षरान्तर ईरोज ऐयाद मजूसअस्त व एकाद-कफ्फारह-नूद रोज ए जलूस विक्रमाजीत लाईन व मबदाए तारीख ए हिन्दू।

भाषान्तर-यह दिन अग्निपूजकों (पारसीकों) का पर्व है, और काफिर (धर्मशून्य) हिन्दुओं के विश्वासानुसार धिक्कृत विक्रमाजीत की राज्याभिषेक तिथि है और भारतवर्ष का नव संवत्सरारम्भ दिवस है।

            नवसंवत्सरारम्भोत्सव संसार की प्रायः सभी सभ्य जातियों में मनाया जाता है। ईसाइयों के यहां इस को न्यू इयर्स डे कहते हैं और वह पहली जनवरी को होता है। फारस देश के पारसियों के यहां वह जश्न नौरोज के नाम से प्रसिद्ध है और सूर्य के मेष राशि में प्रवेश करने पर मनाया जाता है। अन्य जातियों में जहां इस अवसर पर केवल प्रसन्नता प्रदर्शन और रंगरेलियां मनाने की रीति है, वहां धर्मप्राण आर्य जाति में आनन्दानुभव के साथ-साथ यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानपूर्वक इस उत्सव को मनाने की परिपाटी है। ऊपर हेमाद्रि ग्रन्थ के प्रमाण से बताया जा चुका है कि आदि सृष्टि शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन प्रतिपदा को प्रथम सूर्योदय होने पर संवत्सर का प्रारम्भ हुआ था और सिद्धान्त शिरोमणि का उद्धरण देकर यह भी वर्णन किया गया है कि वसन्त ऋतु शुक्ल पक्ष मास, वर्ष तथा युगादि की प्रवृत्ति उसी समय एक साथ हुई थी। इससे ज्ञात होता है कि उस समय चैत्र सुदि प्रतिपदा और सौर मेष संक्रान्ति एक साथ ही पड़ी थी, किन्तु पीछे से सौर और चान्द्र वर्षों की दो प्रकार की गणना संसार में प्रचलित होने पर सौर और चान्द्र संवत्सरों का नवसंवत्सरारम्भ भी पृथक्-पृथक् तिथियों पर होने लगा। चान्द्र संवत्सरारम्भ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को और सौर संवत्सरारम्भ मेष संक्रान्ति के दिन होता है। अतएव ऋतुओं की गणना सौर वर्ष के अनुसार ही होती है, इसलिए भूमण्डल की अधिकांश सभ्य जातियों में सौर संवत्सर प्रचलित है। भारतवर्ष में भी अधिकांश प्रान्तों में सौर वर्ष का ही व्यवहार है। बंगाल प्रान्त में बंगाब्द, दक्षिण में शालिवाहन शक और पंजाब में प्रविष्टा सौर वर्ष गणना पर ही चलते हैं। अतएव आर्य जाति में जहां चैत्र शुक्ला प्रतिपदा की चान्द्र नवसंवत्सरारम्भे का समारोह होता है, वहां मेष संक्रान्ति के दिन और संवत्सरेष्टि भी की जाती है। अतएव जिन प्रान्तों में चान्द्र संवत्सर का व्यवहार होता हो, वहां चैत्र सुदि प्रतिपदा को नवसंवत्सरारम्भोत्सव वा संवत्सरेष्टि पर्व मनाना चाहिए।

मध्याह्न में स्वसामर्थ्यानुसार सात्त्विक व रोचक पाक सम्पन्न करके सब परिवार प्रीतिपूर्वक एकत्र मिलकर भोजन करें तथा अपने आश्रित सेवक आदिकों को भी उस से सत्कृत किया जाये।

            सामाजिक कृत्य-अपराह्न में स्वसुभीते के अनुसार सब आर्य सामाजिक पुरुष किसी प्रशस्त विस्तृत क्षेत्र में एकत्र होकर सभा करें और उसमें संवत्सर विषयक संवत्सरों के प्रकार मान और उनके प्रवेशेतिहास तथा संशोधन आदि विषयों पर निबन्ध पाठ और व्याख्यानों द्वारा विचार करें। (योगकृतविद्य आर्य सदस्य इस अवसर के लिए विशेष निबन्ध-रचना और नवीन प्रस्तावों के लिए प्रोत्साहित किये जा सकते हैं) तत्पश्चात् इस अवसर पर धावनस्पर्धा आदि (दौड़ भाग से सम्बन्ध रखने वाली) क्रीड़ाओं का जो ऋतु की दृष्टि से मनुष्य के स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए आवश्यक हैं, प्रयोग और साम्मुख्य किया जाये।

नवीन-संवत्सर

                                                (१)

                        स्वागत नूतन वर्ष ! समयद्रुम की नव शाखा।

                        स्वागत वर्ष नवीन ! जगत्जन की अभिलाषा।।

                        स्वागत दर्शन योग्य ! मान्य नूतन अभ्यागत।

                        स्वागत प्यारे व्यक्ति ! अनोखे स्वागत ! स्वागत ।।

                                                (२)

                        स्वागत शतत्रय साठ पंच-दिन-गौरव गर्वित।

                        पंचाशत युत-युग्म-भव्य-सप्ताह-सुगर्भित।।

                        स्वागत द्वादश-मास-छटा से आने वाले।

                        स्वागत षट् ऋतुमयी लाने वाले।।

                                                (३)

                        स्वागत उत्तर-काल सिन्धु के विन्दु अदर्शित।

                        स्वागत अलख विशाल गणित के अंक अनंकित।।

                        स्वागत परम भविष्य चन्द्र की कला शोभना।

                        स्वागत अश्रुत महाराग की एक मूर्च्छना।

                        (४)
स्वागत काल विशाल कोश के रत्नजाल चमकीले।
भूप विक्रमादित्य सुयश के नितय रूप दरशीले ।।
प्रकृति विकृत के अचिर चित्रगत अविदित रंगरंगीले।
लुप्त सार संसार काव्य के गुप्त प्रसंग रसीले।।
                        (५)
स्वस्ति अनन्त समय कुसुमाकर अन्तर्गत नव क्यारी।
स्वागत सर्ग महासागर की नव तरंग सुखकारी।।
स्वागत मंजु भविष्य महल के द्वार मनुज मनभावन।
अघटित घटनामय अभिनय के स्वागत दृश्य सुहावन।।
                        (६)
माया ने जपो काल देश ‘ताना बाना’ तान।
बुना जगत् पट, अमित बने फिर बूटे नाना-नाना।।
नाम-स्वरूप क्रियात्मक वह सब पूर्ण प्रियात्मक जाना।
तुम को भी इक वर्ष उसी में है उत्कर्ष दिखाना।।
                        (७)
विमल-सत्त्व गुणमयी चैत में, चारु चन्द्रिका छाना।
प्रभु अनुराग पलाश-प्रभा से कलि कलिमा मिटाना।।
त्रिगुण-बोध की त्रिविध पवन से चित्त का ताप हटाना।
जान प्रपन्न, कृषिबल गृह सम्पन्न अन्न से करना।।
                        (८)
माधव में श्रीकृष्णचन्द्र के वचन समझ अनुरागी।
धर्मयोग अरु कर्मयोग के जाने मर्म सुभागी।।
मलिन-हृदय वैशाख-नन्दनों को धुरे दिखलाना।
देश-प्रताप दिनेश सुभग का दिन-दिन तेज बढ़ाना।।
                        (९)
जेठ मध्य विपरीत पवन जब तन की तपन बढ़ावें।
फौवारे तू शान्ति-सलिल के शीतल सुखद छड़ावें।।
अमलतास की पीली पीली सरस प्रभा दरसावें।
गर्मी में भी भरतखण्ड पै रंग वसन्ती छावें।।

(१०)

जब आये आषाढ़, आस की घनी घटाएं लाना।

दबे हुए दुर्भिक्ष बीज को बिजली से झुलसाना।।

दुर्मतिमय विद्रोह दलों को गरज गरज डरवाना।

पावन-सुख विज्ञप्ति दुन्दुभि श्रद्धा-जनक बजाना।।

                        (११)

बगले देशभक्त सावन में जभी वृथा झख मारें।

लोग समझ पाखण्ड सफेदी पर न चित्त को वारें।

सदुपदेश के मोर पपीहे पूरा आदर पावें।

सत्य परस्पर प्रेम वृष्टि से प्रजा भूप सुख पावें।।

                        (१२)

भादों में ‘अति दुःख’ कंस के जीवन खण्डनकारी।

‘परमानन्द’ कृष्ण जब जन्मे सकल अमंगलकारी।।

संगम यमुना तीर मंजू सत्संग कुंज मन भावै।

ज्ञान प्रसंग मधुर वंशी धुन सुन-सुन श्रुति सुख पावै।।

                        (१३)

क्वार करावे राजभक्त वर राजहंस गण दर्शन।

अभिलाषा के लिखें कमल वन हो मन मधुप प्रहर्षण।।

भीष्म पितामह आदि पूर्वजों का सम्यक् तर्पण।

हो उनका अनुकरण, धर्महित हो धन-जीवन अर्पण।।

                        (१४)

कार्तिक में हो राम-स्मरण, भारत उन्नतिशाली।

दीपावली सुप्रतिभा वाली जगै सजै दीवाली।।

उठे जुआ चोरी दुनिया से कुटिल नीति वालों की।

होती हार रहे तीसों दिन कपट-प्रीति वालों की।।

                        (१५)

मागशीर्ष में निधन जन पर करुणा पूरी करना।

विपुल वस्त्रसम्पन्न उन्हें कर, भीत शीत की हरना।।

भरत-खण्ड दुर्दैव कोप को करना ऐसा शीतल।

हो न कभी सन्तप्त यहां की सन्त प्रशस्य महीतल।।

                        (१६)

पूस मास में देशहितैषी ऐसी धूम मचावें।

शीतावकाश के सप्ताह विदित में परोत्साह दिखावें।।

पोलिटिकल, धार्मिक, औद्योगिक, नैतिक, विविध सभाएँ।

रचें महावार्षिक अधिवेशन पूर्ण सफलता पायें।।

                        (१७)

माघ मास में सुजन भाव के सुजन सुमंजुल फूलें।

चंचल चित्त हिंडोल मनोहर मूर्ति युवतिजन झूलें।।

वेदधारिणी सरस्वती को पूजा जग की भावे।

सत्य, सनातन, संस्कृत विद्या, सदा समुन्नति पावे।।

                        (१८)

फाल्गुन में परमेश भक्त का गुण सच्चा रंग लावे।

हरिजन त्रासक के कुनाम पर दुनिया धूल उड़ावे।।

भीगे हुए रंग स्यारों की फूहड़ शोर न छावे।

पूरण देश रंग मे भीगे जग की छटा पढ़ावे।।

                        (१९)

सत्कवियों का मान बढ़ाना सद्भक्तों का आदर।

देश हितकर अकवि निकर को देना घोर अनादर।।

सत्य, सुमति, सम्पत्ति, सौम्यता, सदुद्योग सुखकारी।

मिलें पूर्णविधि प्रिय भारत को विनति यही हमारी ।।

                                    –कविवर राय देवीप्रसाद बी. ए. ‘पूर्ण’ कृत

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