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चन्द्र सिंह गढ़वाली - Santasa
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चन्द्र सिंह गढ़वाली

उत्तराखण्ड हमेशा से वीरों की भूमि रहा है और इस धरती ने इन्हीं वीरों में से कुछ परमवीर भी पैदा किये, जिनमें चन्द्र सिंह गढ़वाली का नाम सर्वोपरि कहा जा सकता है। आज उन्हीं चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्मदिवस है जिन्हें भारतीय इतिहास में पेशावर विद्रोह के नायक के रूप में याद किया जाता है। भारतीय इतिहास में पेशावर विद्रोह एक ऐसी घटना है जिसने आजादी के संघर्ष की उस बानगी को पेश किया जिसमें देशप्रेम का वास्तविक मतलब देश के नागरिकों से प्रेम के रूप में परिभाषित हुआ है। पेशावर के इस सैनिक विद्रोह की गाथा यह है कि 23 अप्रैल 1930 को हवलदार मेजर चन्द्रसिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लडनें वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बडा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये थे, उन्हें अपनें पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होनें लगी थी।

चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 को ग्राम मासी, सैणीसेरा, चौथान पट्टी, गढ़वाल में एक किसान जलौथ सिंह भंडारी के पुत्र के रूप में हुआ था। उनके पूर्वज चौहान वंश के थे जो मुरादाबाद में रहते थे पर काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहाँ के थोकदारों की सेवा करने लगे थे। अपनी अशिक्षा के कारण चन्द्र सिंह के पिता उन्हें विधिवित रूप से शिक्षित नहीं कर सके। गरीब परिवार में जन्मे लडके के पिता यदि पढाई-लिखाई से ज्यादा गाय भैंस चरानें को महत्वपूर्ण समझते थे तो यह कोई अचरज की बात नहीं थी पर चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था।

उन दिनों ब्रिटिश काल था और ब्रिटिश सेना में भर्ती अपने क्षेत्र के जवानों के ठाठबाट देख कर उनकी इच्छा भी सेना में भर्ती होने की हुयी। घर से सहमति नहीं थी इसलिए 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह घर से भागकर सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और 11 सितम्बर 1914 को गढ़वाल राईफल्स में सिपाही के रूप में भर्ती हो गये। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया जहाँ प्रथम उन्होंने मित्र राष्ट्रों की ओर से अपने सैनिक साथियों के साथ यूरोप और मध्य पूर्वी क्षेत्र में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी की। 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया और 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया।

सेना में रहते हुए ही उनकी रूचि पढ़ने लिखने की तरफ हुयी। अंग्रेज पढ़ाई-लिखाई तो कराते थे पर हिंदी रोमन लिपि में लिखवाते थे। ऐसा इसलिये क्योंकि अनपढ़ सिपाही यदि देवनागिरी लिपि पढऩा सीख जायेगा तो देश के अखबारों में अंग्रेजों के विरूद्ध हो रही उथल-पुथल को पढ़कर जानने लगेगा। फ्रांस, मैसोपोटामिया (अब ईराक) आदि की लड़ाइयों के दौरान ही अंग्रेजों के बर्ताव से चन्द्र सिंह को अपने गुलाम होने का बोध होने लगा था। फौज में रहते हुए ही जब वे देवनागिरी लिपि सीख गये तो उन्होने हिंदी अखबार पढऩा शुरू किया। पेशावर में तैनाती के दौरान भी पकड़े जाने का खतरा उठाते हुए चन्द्र सिंह अखबार खरीदकर लाते, अपने साथियों के साथ रात में दरवाजे पर कंबल लगाकर उसे पढ़ते और सबेरा होने से पहले पानी में गलाकर नष्ट कर देते थे।

प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद सन 1920 में गढ़वाल में अकाल पड़ा जिसके कारण पलटने तोड़ी जाने लगीं| गढ़वाली सैनिकों को पलटन से निकाल दिया गया और ओहदेदारों को फिर से सैनिक बना दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे और इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि आगे इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया। इस अवकाश के दौरान इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीतने लगा और उनके संपर्क से इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। आर्य समाज के प्रभाव में वह ऊंच-नीच, बलि प्रथा, फलित ज्योतिष आदि धार्मिक पाखंडों के विरोधी हो गये थे। अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और कुछ समय पश्चात उन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में पश्चिमोत्तर सीमान्त में बजीरिस्तान भेजा गया जहाँ अंग्रेजों और पठानों के बीच युद्ध चल रहा था। 1921 से 1923 तक वहाँ रहने के दौरान उनको पुनः तरक्की कर मेजर हवलदार बना दिया गया।

1929 में गांधी जी के बागेश्वर आगमन पर उनकी मुलाकात गांधी जी से हुई और गांधी जी के हाथ से गांधी टोपी लेकर, जीवन भर उसकी कीमत चुकाने का प्रण उन्होंने कर लिया। उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 1930 में इनकी बटालियन को पेशावर जाने का हुक्म हुआ। 22 अप्रैल 1930 को दोपहर के समय पेशावर के परेड मैदान में समक्ष सभी जमा सैनिकों के समक्ष अंग्रेज अधिकारी ने आकर कहा कि हमे अभी पेशावर शहर में ड्यूटी के लिए जाना होगा। पेशावर शहर में 97 % मुसलमान हैं और वे अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार कर रहे हैं, इसलिए गढ़वाली सेना को पेशावार जाकर अमन चैन कायम करना होगा और यदि जरुरत पड़ी तो मुसलमानों पर गोली भी चलानी होगी।

आज़ादी के संघर्ष को खत्म करने के लिए, उसे मज़हबी रंग देने के लिए अंग्रेजों ने एक नीति बनाई थी कि जिन इलाकों में मुसलमान ज्यादा होते थे तो उनमे हिन्दू सैनिकों की तैनाती करते और जिन इलाकों में हिन्दू ज्यादा होते थे तो उनमें मुसलमान सैनिकों की तैनाती करते थे। चन्द्र सिंह अंग्रेजों की इस कूटनीति को समझ गए और उन्होंने अपने सैनिकों से कहाँ “ब्रिटिश सैनिक कांग्रेस के आन्दोलन को कुचलना चाहते हैं। क्या गढ़वाली सैनिक गोली चलाने के लिए तैयार हैं? ” पास खड़े सभी सैनिकों ने कहाँ कि कदापि नहीं, हम अपने निहत्थे भाइयों पर कभी भी गोली नहीं चलायेंगे।

उस समय अंग्रेज सरकार ने सैनिकों के बैरकों पर चिपकाया हुआ था कि जो भी फौजी बगावत करेगा, उसे निम्न सजाएं दी जाएँगी–
१. उसे गोली से उदा दिया जायेगा। 
२. उसे फाँसी दे दी जाएगी। 
३. खती में चूना भरकर उसमें बागी सिपाही को खड़ा किया जायेगा और पानी डालकर जिन्दा ही जला दिया जायेगा। 
४. बागी सैनिकों को कुत्तों से नुचवा दिया जायेगा। 
५. उसकी सब जमीन जायदाद छिनकर उसे देश से निकला दे दिया जायेगा। 
इस सख्त नियम के होने के बावजूद गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ न देने का मन बना लिया।

23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में किस्साखानी बाजार में 20000 के करीब निहत्थे आन्दोलनकारियों की भीड़ विदेशी शराब और विलायती कपड़ों की दुकानों पर धरना देने के लिए आयी थी। एक गोरा सिपाही बड़ी तेज़ी से मोटर साइकिल पर भीड़ के बीच से निकलने लगा जिससे कई व्यक्तियों को चोटे आई| भीड़ ने उत्तेजित होकर मोटर साइकिल में आग लगा दी जिससे गोरा सिपाही घायल हो गया| अंग्रेज आजादी के इन दीवानों को तितर-बितर करना चाहते थे, जो बल प्रयोग से ही संभव था। कैप्टेन रिकेट ने, जो 
72 गढ़वाली सिपाहियों को लेकर जलसे वाली जगह पहुंचा था, निहत्थे पठानों पर गोली चलाने का हुक्म दिया। उसकी आवाज गूंजी–गढ़वाली थ्री राउंड फायर| उसके आदेश के विरुद्ध चन्द्र सिंह गढ़वाली की आवाज़ गूंज उठी–गढ़वाली सीज फायर और सभी गढ़वाली सैनिकों ने हथियार भूमि पर रख दिए।

इसके बाद गोरे सिपाहियों से गोली चलवाई गई। सभी सैनिकों को बंदी बनाकर वापिस बैरकों में लाया गया| सभी सैनिकों ने अपना इस्तीफा दे दिया और कारण बताया कि हम हिन्दूस्तानी सिपाही हिंदुस्तान की सुरक्षा के लिए भरती हुए हैं न कि निहत्थी जनता पर गोलियां चलने के लिए| चन्द्रसिंह और गढ़वाली सिपाहियों का यह मानवतावादी साहस अंग्रेजी हुकूमत की खुली अवहेलना और राजद्रोह था। उनकी पूरी पल्टन एबटाबाद (पेशावर) में नजरबंद कर दी गई, उनपर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया। इस घटना ने पेशावर विद्रोह में गढ़वाली बटेलियन को एक ऊँचा दर्जा दिलाया और इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर विद्रोह का नायक माना जाने लगा।

23 अप्रैल 1930 को घटी इस घटना को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि गढ़वाली सिपाहियों ने क्षणिक आवेश में आकर यह कार्यवाही कर दी हो। जबकि वास्तविकता यह है कि यह क्षणिक आवेश में घटित घटना या कांड नहीं था। यह एक सुविचारित विद्रोह था जिसकी तैयारी चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथी काफी अर्से से कर रहे थे| इस घटना सुंदर काव्यात्मक जिक्र कथाकार और इतिहास के अध्येता शोभाराम शर्मा ने भी किया है। चन्द्र सिंह गढ़वाली के जीवन को केन्द्र में रखकर उन्होंने एक महाकाव्य लिखा है| इस अवसर पर महाकाव्य का वह अंश जिसमें पेशावर विद्रोह की पृष्ठभूमि और उसके लिए हुई आरम्भिक तैयारियां पुनसर्जित हुई है, यहां प्रस्तुत करते हुए करने का लोभ संवरण मैं नहीं कर पा रहा हूँ।

पंचवटी में प्राप्त प्रशिक्षण, शिक्षक बनकर आया था। 
उसकी सैनिक प्रतिभा से भी, असर वहाँ पर छापा था।।
मार्टिन था कप्तान उसी ने, ट्रेनिंग का खुद भार दिया। 
अभी निशानेबाजी पर वह, भाषण ही दे पाया था।। 
गोरा अफसर आकर बोला-”आज तुम्हें कुछ बतलाऊँ। 
गढ़वाली क्यों पेशावर में, भेद यही सब समझाऊँ।।
मुस्लिम भारी बहुमत में हैं, हिन्दू रहते आफत में।
धन-दौलत क्या औरत लूटें, इज्जत सारी साँसत में।।
दूकानों पर धरना देते, लूट न पाते जब उनको।
तुमको सारी बदमाशी का, सबक सिखाना है इनको।।
इसीलिए तो हिन्दू पलटन, सोच-समझकर भेजी है।
शायद कल बाजार चलोगे, जहाँ निपटना है तुमको।।
”इस पर कोई उठकर बोला-”हमको कुछ पहचान नहीं। 
हिन्दू-मुस्लिम एक सरीखे, रंग वही परिधान वही।।” 
”जो भी धरना देता होगा, याद रखो मुस्लिम होगा। 
फिर भी अफसर साथ चलेंगे, पास तुम्हारे हम होगा।।
”फूट बढ़ाओ राज करो की, धूर्त चमक थी आँखों में। 
धूल मगर वह झोंक न पाया, भड़ की निर्मल आँखों में।। 
इन बातों की समझ उसे थी, आया नहीं छलावे में। 
संकट में क्या करना होगा, भूला नहीं भुलावे में।। 
गोरा तनकर चला गया तो, रोक न पाया वह मन को।
बोला-”यदि कुछ सुनना चाहो, राज बता दूँ सब तुमको।।
कहीं किसी से मत कह देना, अपनी भी लाचारी है।
हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठाना, साहब की मारी है।। 
झगड़ा शासित-शासक का है, प्रश्न खड़ा आजादी का।
बीज इन्होंने बो डाला है, जन-जन की बर्बादी का।।
सात समुन्दर पार निवासी, बना हमारा स्वामी है। 
चूस रहा जो खून हमारा, शोषक जोंक कुनामी है।। 
यहाँ निकलसन लाइन है या, हरिसिंह नलवा लाइन है। 
बैर-विरोध न मिटन पाए, सोची-समझी लाइन है।। 
देश-धरम पर मिटने वाले, इनको गहरे दुश्मन हैं। 
झूठे-सच्चे केस चलाकर, नरक बनाते जीवन हैं।। 
अपने घर में बन्द अभागे, आपस में हम लड़ते हैं। 
खुलकर नाच नचाया जात, कठपुतले हम पिटते हैं।।
आज चुनौती दे डाली तो, हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठा। 
हमें चलानी होगी गोली, सोच-समझ तो आँख उठा।।
सिर पर बाँधे कफन खड़े हैं, आजादी के मतवाले। 
गद्दारों में गिनती होगी, मूढ़ रुकावट जो डाले।। 
गोली दागो, अच्छा होगा, गोली खाकर मर जाओ।
खून निहत्थे जन का होगा, हाथ न अपने रंग जाओ।। 
कुल का नाम कलंकित करना, कहो कहाँ की नीति भली।
नहीं नरक में ठाँव मिलेगा, हमसे गोली अगर चली।। 
दुनिया को दिखलादो यारो, टुकड़ों के हम दास नहीं। 
समझ हमें भी दुनिया की है, चरते केवल घास नहीं।।
देश-द्रोह फिर बन्धु हनन का, पाप कमाना लानत है।
उदर-दरी तक सीमित रहकर, जीवित रहना लानत है।। 
अंग्रेजों का नमक नहीं है, जिस पर अपना पेट पले। 
नमक-हलाली किसकी यारों, देश हमारा भारत है।।

जाकर देखा भीड़ खड़ी थी, सम्मुख सैनिक डटे हुए। 
चित्र लिखे से सिर ही सिर थे, पथ के पथ ज्यों पटे हुए।। 
पूरी पलटन आ धमकी फिर, भीत न लेकिन भीड़ घ्ानी। 
गगनांगन पर यान उड़ाए, तोप शहर की ओर तनी।। 
अंग्रेजों का शक्ति-प्रदर्शन, खेल बना दीवानों को। 
जल जाते हैं लेकिन तन की, चिन्ता कब परवानों को।।
जमघ्ाट जुड़ता देख भयातुर, आगे बढ़ आदेश दिया। 
संगीनों की नोंक दिखाकर, पट्ठानों को घ्ोर लिया।। 
तभी अचानक सिक्ख दहाड़ा, उर्दू में कुछ पश्तों में। 
मुर्दो तक में हरकत ला दे, ताकत थी उन शब्दों में।।
‘अल्ला हू अकबर !” का नारा, गले हजारों बोल उठे। 
जय गाँधी, जय जन्म-भूमि के, शत-शत नारे गूँज उठे।।
उधर तिरंगे लहराते थे, पठानों के वक्ष खुले। 
उधर मनोबल तुड़वाने पर, अंग्रेजों के दास तुले।। 
सीटी लम्बी बजा-बजाकर, जनता को चेताया था। 
गोली दागी जाएगी अब, पढ़कर हुक्म सुनाया था।।
गोरा था कप्तान जिसे अब, अग्नि-परीक्षा देनी थी। 
अपने खूनी आकाओं की,, इच्छा पूरी करनी थी।।
”गढ़वाली ! बढ़ गोली दागो”, उसके मुख से जब निकला।
चन्द्रसिंह भी सिंह सरीखा आगे बढ़कर कह उछला।।
”गढ़पूतों ! मत गोली दागो”, साथ सभी थे चिल्लाए।
निर्भय उसके पग-चिह्नों पर, हुक्म गलत सब ठुकराए।।——–शोभाराम शर्मा

अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण इन सैनिकों पर मुकदमा चला। अंग्रेज स्वयं इस विद्रोह के महत्व और इसके संभावित परिणाम के खतरे को भांप चुके थे। वे जानते थे कि यदि इस घटना की व्यापक चर्चा हुई तो गढ़वाली पल्टन से उठी ये बगावत की चिंगारी पूरी अंग्रेजी फौज के हिंदुस्तानी सैनिकों में आग की तरह फैल जायेगी। इसलिये जो मुकदमा चलाया गया वो 23 अप्रैल को गोली न चलाने का ना होकर 24 अप्रैल की हुक्म उदूली का था| दरअसल 24 अप्रैल, 1930 को अंग्रेजों ने फिर गढ़वाली पल्टन को पेशावर में उतारना चाहा था, परंतु चन्द्र सिंह ओर उनके साथियों की कोशिशों के चलते उनकी बटालियन बैरकों से बाहर ही नहीं निकली।

पेशावर में गढ़वाली पल्टन द्वारा किया गया विद्रोह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके महत्व को कमतर करने की अंग्रेजों ने भरसक कोशिश की। परंतु आश्चर्यजनक तो यह है कि हमारे स्वाधीनता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भी इसे कमतर ही आंका है। इस घटना के महत्व को रेखांकित करते हुए 8 जून, 1930 के लीडर ने समाचार छापा कि ”1857 के बाद बगावत के लिये भारतीय सिपाहियों का पहला कोर्ट मार्शल आजकल एबटाबाद के पास काकुल में हो रहा है।’’ यानि अखबार तो पेशावर विद्रोह को 1857 के बाद का सबसे बड़ा सैनिक विद्रोह आंक रहे थे। परंतु अहिंसा की माला जपने वाले स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भी इसे अंग्रेजों की तरह ही अपराध समझा।

इस अहिंसक सिपाही के पवित्र आन्दोलन की अहिंसा के पुजारी गाँधी ने बागी कहकर आलोचना की। फ़्रांसिसी पत्रकार चार्ल्स पैत्राश द्वारा गढ़वाली सिपाहियों के बारे में पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए गांधीजी ने कहा था कि “वह सिपाही जो गोली चलाने से इंकार करता है, अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है, इस प्रकार वह हुक्म उदूली का अपराध करता है। मैं अफसरों और सिपाहियों से हुक्म उदूली करने के लिये नहीं कह सकता। जब हाथ में ताकत होगी, तब शायद मुझे भी इन्हीं सिपाहियों से और अफसरों से काम लेना पड़ेगा। अगर मैं इन्हें हुक्म उदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे भी डर लगा रहेगा कि मेरे राज में भी वे ऐसा ही न कर बैठें।” यानि अंग्रेजों की फौज के प्रति की गयी प्रतिज्ञा को तो गांधीजी महत्वपूर्ण मान रहे थे, परंतु देश की आजादी के निहत्थे मतवालों पर गोली न चलाकर अपनी जान को खतरे में डालने के गढ़वाली सैनिकों के अदम्य साहस की उनकी निगाह में कोई कीमत नहीं थी। अहिंसा के अनन्य पुजारी आजादी के संग्राम में इन सिपाहियों के योगदान को नकारते हुए इस बात के लिये अधिक चिंतित थे कि सत्ता हाथ में आने के बाद उनके कहने पर भी ये सिपाही निहत्थी जनता पर गोली न चलाये तो क्या होगा? पर सैन्य विद्रोह को कमतर आंकने या उन्हें नकारनें की यह प्रवृति सिर्फ पेशावर विद्रोह के प्रति ही नहीं है, बल्कि कांग्रेस से इतर होने वाले किसी भी अन्य आंदोलन और उसके नेताओं के प्रति रही है। यह आजादी के आंदोलन का इतिहास लिखने की कांग्रेसी शैली रही है कि आजादी के आंदोलन का इतिहास या तो कांग्रेस का इतिहास नजर आता है या अंग्रेजों का इतिहास।

यहाँ पर श्री शैलन्द्र द्वारा पांचजन्य के स्वदेशी अंक में 16 अगस्त 1992 में चन्द्रसिंह गढ़वाली से हुई अपनी भेंट वार्ता का वर्णन याद करना समीचीन है, जिसमें उन्होंने लिखा है– मैंने पूछा कि इस आज़ादी का श्रेय फिर भी कांग्रेस लेती हैं? चन्द्रसिंह उखड़ गए और गुस्से में कहा – यह कोरा झूठ है। मैं पूछता हूँ कि ग़दर पार्टी, अनुशीलन समिति, एम.एन.एच., रास बिहारी बोस, राजा महेंदर प्रताप, कामागाटागारू कांड, दिल्ली लाहौर के मामले, दक्शाई कोर्ट मार्शल के बलिदान क्या कांग्रेसियों ने दिए हैं? चोरा- चौरी कांड और नाविक विद्रोह क्या कांग्रेसियों ने किये थे? लाहौर कांड, चटगांव शस्त्रागार कांड, मद्रास बम केस, ऊटी कांड, काकोरी कांड, दिल्ली असेम्बली बम कांड , क्या यह सब कांग्रेसियों ने किये थे? हमारे पेशावर कांड में क्या कहीं कांग्रेस की छाया थी? अत: कांग्रेस का यह कहना कि स्वराज्य हमने लिया, एकदम गलत और झूठ है। कहते कहते क्षोभ और आक्रोश से चन्द्रसिंह जी उत्तेजित हो उठे और बोले- कांग्रेस के इन नेतायों ने अंग्रेजों से एक गुप्त समझोता किया, जिसके तहत भारत को ब्रिटेन की तरफ जो 18 अरब पौंड की पावती थी, उसे ब्रिटेन से वापिस लेने की बजाय ब्रिटिश फौजियों और नागरिकों के पेंशन के खातों में डाल दिया गया। साथ ही भारत को ब्रिटिश कुनबे (commonwealth) में रखने को मंजूर किया गया और अगले ३० साल तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सेना को गैर क़ानूनी करार दे दिया गया। मैं तो हमेशा कहता हूँ और कहता रहूँगा कि अंग्रेज वायसराय की ट्रेन उड़ाने की कोशिश कभी कांग्रेस ने नहीं की, की तो क्रांतिकारियों ने ही की। हार्डिंग पर बम भी वही डाल सकते थे न कि कांग्रेसी नेता। सहारनपुर-मेरठ- बनारस- गवालियर- पूना-पेशावर सब कांड क्रांतिकारियों से ही सम्बंधित हैं, कांग्रेस से कभी नहीं।

गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल द्वारा की गयी जिन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनकी मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया और 13 जून 1930 को एबटाबाद मिलिटरी कोर्ट में कोर्ट मार्शल में हवलदार मेजर चन्द्रसिंह को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़प्त कर ली गई और इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया। 16 लोगों को लम्बी सजायें हुई, 39 लोगों को कोर्ट मार्शल के द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। 7 लोगों को बर्खास्त कर दिया गया तथा इन सभी का संचित वेतन जब्त कर दिया गया। चन्द्र सिंह गढ़्वाली तत्काल ऎबटाबाद जेल भेज दिये गये, जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में डेरा इस्माइल खान, बरेली, नैनीताल, लखनऊ, अल्मोड़ा और देहरादून स्थानान्तरित किया जाता रहा। नैनी सेन्ट्रल जेल में उनकी भेंट क्रान्तिकरी राजबंदियों से हुई। लखनऊ जेल में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से भेंट हुई। बाद में इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को रिहा कर दिया गया। परन्तु इनके गृहक्षेत्र में प्रवेश प्रतिबंधित रहा जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और उन्हें फिर से गिरफ्तार कर सात साल की सजा दी गई, लेकिन 1945 में ही उन्हें जेल से छोड़ दिया गया। अंतत 22 अक्टूबर 1946 को वे गढ़वाल वापिस लौटे।


पेशावर विद्रोह के लिये काले पानी की सजा पाने के बाद विभिन्न जेलों में यशपाल, शिव वर्मा, रमेश चंद्र गुप्त, ज्वाला प्रसाद शर्मा जैसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के साथ रहते हुए साम्यवाद से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे चन्द्रसिंह गढ़वाली का साम्यवाद की और झुकाव हो गया। उनकी रिहाई के बाद गढ़वाल पहुँचने के बाद उन्होंने रानीखेत में कम्युनिस्ट पार्टी का काम किया और अकाल, पानी की समस्या समेत विभिन्न सवालों पर आंदोलन चलाया। अंग्रेजों के देश से चले जाने के बाद भी उन्होंने गढ़वाल में टिहरी राजशाही के विरुद्ध एवं अकाल, पोस्ट ऑफिस के कर्मचारियों की हड़ताल, सड़क, कोटद्वार के लिये दिल्ली से रेल का डिब्बा लगने जैसे तमाम सवालों पर आंदोलन किए। वस्तुतः 1930 में हुये पेशावर विद्रोह से लेकर 1979 में जीवन के अंतिम क्षण तक चंद्रसिंह गढ़वाली निरंतर स्वाधीनता आंदोलन से लेकर तमाम जन संघर्षों में शामिल रहे। इसमें जेलों के भीतर की अव्यवस्था और राजनैतिक बंदियों के लिये की जाने वाली भूख हड़तालें भी शामिल हैं। परंतु आज टुकड़े-टुकड़े में हमारे सामने पेशावर विद्रोह के इस नायक का जो ब्यौरा पहुंचता है उसे देखकर ऐसा लगता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली वो सितारा था, जो 23 अप्रैल 1930 को अपनी समूची रोशनी के साथ चमका और फिर अंधेरे में खो गया । जबकि 1930 के बाद आधी शताब्दी से अधिक समय तक वे जनता के मुद्दों पर जूझते रहे।

चन्द्रसिंह गढ़वाली स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद भी संघर्ष की अदम्य जिजिविषा के चलते उत्तराखंड के सबसे बड़े नेताओं में एक ठहरते हैं। लेकिन उन्हें निरंतर उपेक्षित किया गया और इसकी सीधी वजह यह थी कि उन्होंने कांग्रेसी खांचे में फिट होने से इन्कार कर दिया। राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित उनकी जीवनी में यह दर्ज है कि 1946 में उनके गढ़वाल आने पर कांग्रेसियों ने जगह-जगह कोशिश की कि वह सीधे जनता से न मिल सकें। सिद्धांतों पर अडिग रहने के चलते चन्द्र सिंह गढ़वाली को कांग्रेसियों ने भोंपू लेकर घूमने वाला पागल घोषित कर हंसी का पात्र बनाने की भरसक कोशिश की। चन्द्र सिंह गढ़वाली को नीचा दिखाने का कोई मौका उन्होंने हाथ से नहीं जाने दिया। यहां तक कि आजादी के बाद 1948 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत की गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया तो गिरफ्तारी के कारणों में ”पेशावर में हुए गदर का सजायाफ्ता’’ होना बताया। इसकी खबर भारतीय अखबारों तथा लंदन के डेली वर्कर में छपने के बाद हुई फजीहत के चलते पंत की तरफ से माफी मांगी गयी और गिरफ्तारी नोटिस में ”पेशावर घटना के उल्लेख को आपत्तिजनक’’ माना गया।

16 साल की नौकरी के बदले जब मात्र 30 रुपये पेंशन मिली, तो उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया, लेकिन अपने बाक़ी साथियों को सम्मानजनक पेंशन दिलवाने के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे। वह पेशावर विद्रोह के सैनिकों के पेंशन के मसले पर 1962 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंचे। नेहरू जी से चन्द्रसिंह ने मांग की कि ”पेशावर कांड को राष्ट्रीय पर्व समझा जाय और सैनिकों को पेंशन दी जाये। जो मर गये उनके परिवार को सहायता दी जाये।’’ नेहरु ने उनसे कहा, बड़े भाई आप पेंशन क्यूँ नहीं लेते। चन्द्र सिंह ने कहा मैंने जो कुछ भी किया पेंशन के लिए नहीं बल्कि देश के लिए किया। आज आपके कांग्रेसियों की 70 और 100 रुपये पेंशन हैं जबकि मेरी 30 रुपये। नेहरु जी सर झुकाकर चुप हो गए और फिर बोले अभी जो भी मिलता हैं उसे ले लीजिये। चन्द्र सिंह ने कहा कि कंपनी रूल के अनुसार जो 30 रूपए मासिक जो आपकी सरकार देती हैं वह न देकर मुझे एक साथ 5000 रुपये दे दिए जाये जिससे में सहकारी संघ और होउसिंग ब्रांच का कर्ज चूका सकूँ। नेहरु जी ने कहा कि आपकी पेंशन भी बढ़ा दी जाएगी और आपको 5000 रुपये भी दे दिए जायेगे। फिर चन्द्रसिंह की फाइल उत्तर प्रदेश सरकार के पास भेज दी गयी। सरकारे आती जाती रहीं पर उन्हें कोई न्याय नहीं मिला। अगर कुछ मिला तो आजाद भारत में एक साल की सजा।

~ लेखक : विशाल अग्रवाल
~ चित्र : माधुरी

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